HINDI PAGE 6

ਆਖਹਿ ਗੋਪੀ ਤੈ ਗੋਵਿੰਦ ॥
आखहि गोपी तै गोविंद ॥ 
गिरिधर गोपाल कृष्ण तथा उसकी गोपियाँ भी उस निरंकार का गुणगान करती हैं ।

ਆਖਹਿ ਈਸਰ ਆਖਹਿ ਸਿਧ ॥
आखहि ईसर आखहि सिध ॥   
महादेव तथा गोरख आदि सिद्ध भी उसकी कीर्ति को कहते हैं ।

ਆਖਹਿ ਕੇਤੇ ਕੀਤੇ ਬੁਧ ॥
आखहि केते कीते बुध ॥
उस सृष्टिकर्ता ने इस जगत् में जितने भी बुद्धिमान किए हैं वे भी उसके यश को कहते हैं

ਆਖਹਿ ਦਾਨਵ ਆਖਹਿ ਦੇਵ ॥
आखहि दानव आखहि देव ॥
समस्त दैत्य व देवतादि भी उसकी महिमा को कहते हैं ।

ਆਖਹਿ ਸੁਰਿ ਨਰ ਮੁਨਿ ਜਨ ਸੇਵ ॥
आखहि सुरि नर मुनि जन सेव ॥
संसार के सभी पुण्य-कर्मी मानव, नारद आदि ऋषि-मुनि तथा अन्य भक्त जन उसकी प्रशंसा के गीत गाते हैं ।

ਕੇਤੇ ਆਖਹਿ ਆਖਣਿ ਪਾਹਿ ॥
केते आखहि आखणि पाहि ॥   
कितने ही जीव वर्तमान में कह रहे हैं, तथा कितने ही भविष्य में कहने का यत्न करेंगे

ਕੇਤੇ ਕਹਿ ਕਹਿ ਉਠਿ ਉਠਿ ਜਾਹਿ ॥
केते कहि कहि उठि उठि जाहि ॥
तने ही जीव भूतकाल में कहते हुए अपना जीवन समाप्त कर चुके हैं ।

ਏਤੇ ਕੀਤੇ ਹੋਰਿ ਕਰੇਹਿ ॥
एते कीते होरि करेहि ॥
इतने तो हम गिन चुके हैं यदि इतने ही और भी साथ मिला लिए जाएँ ।

ਤਾ ਆਖਿ ਨ ਸਕਹਿ ਕੇਈ ਕੇਇ ॥
ता आखि न सकहि केई केइ ॥
तो भी कोई किसी साधन से उसकी अमूल्य स्तुति कह नहीं सकता ।

ਜੇਵਡੁ ਭਾਵੈ ਤੇਵਡੁ ਹੋਇ ॥
जेवडु भावै तेवडु होइ ॥
जितना स्व-विस्तार चाहता है उतना ही विस्तृत हो जाता है ।

ਨਾਨਕ ਜਾਣੈ ਸਾਚਾ ਸੋਇ ॥
नानक जाणै साचा सोइ ॥
श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं कि वह सत्य स्वरूप निरंकार ही अपने अमूल्य गुणों को जानता है ।

ਜੇ ਕੋ ਆਖੈ ਬੋਲੁਵਿਗਾੜੁ ॥
जे को आखै बोलुविगाड़ु ॥
यदि कोई निरर्थक बोलने वाला परमेश्वर का अंत कहे कि वह इतना है

ਤਾ ਲਿਖੀਐ ਸਿਰਿ ਗਾਵਾਰਾ ਗਾਵਾਰੁ ॥੨੬॥
ता लिखीऐ सिरि गावारा गावारु ॥२६॥
तो उसे महामूखों में अंकित किया जाता है॥ २६ ॥

ਸੋ ਦਰੁ ਕੇਹਾ ਸੋ ਘਰੁ ਕੇਹਾ ਜਿਤੁ ਬਹਿ ਸਰਬ ਸਮਾਲੇ ॥
सो दरु केहा सो घरु केहा जितु बहि सरब समाले ॥
उस प्रतिपालक ईश्वर का द्वार तथा घर कैसा है, जहाँ बैठकर वह सम्पूर्ण सृष्टि को सम्भाल रहा है ?

ਵਾਜੇ ਨਾਦ ਅਨੇਕ ਅਸੰਖਾ ਕੇਤੇ ਵਾਵਣਹਾਰੇ ॥   
वाजे नाद अनेक असंखा केते वावणहारे ॥
(यहाँ पर सतिगुरु जी इस प्रश्न की निवृति में उत्तर देते हैं) हे मानव ! उसके द्वार पर नाना प्रकार के असंख्य वादन गूंज रहे हैं और कितने ही उनको बजाने वाले विद्यमान हैं ।

ਕੇਤੇ ਰਾਗ ਪਰੀ ਸਿਉ ਕਹੀਅਨਿ ਕੇਤੇ ਗਾਵਣਹਾਰੇ ॥
केते राग परी सिउ कहीअनि केते गावणहारे ॥
कितने ही राग हैं जो रागिनियों के संग वहाँ गान किए जा रहे हैं और उन रागों को गाने वाले गंधर्व आदि रागी भी कितने ही हैं ।

ਗਾਵਹਿ ਤੁਹਨੋ ਪਉਣੁ ਪਾਣੀ ਬੈਸੰਤਰੁ ਗਾਵੈ ਰਾਜਾ ਧਰਮੁ ਦੁਆਰੇ ॥
गावहि तुहनो पउणु पाणी बैसंतरु गावै राजा धरमु दुआरे ॥
उस निरंकार का यश पवन, जल तथा अग्नि देव गा रहे हैं तथा समस्त जीवों के कर्मों का विश्लेषक धर्मराज भी उसके द्वार पर खड़ा उसकी महिमा को गाता है ।

ਗਾਵਹਿ ਚਿਤੁ ਗੁਪਤੁ ਲਿਖਿ ਜਾਣਹਿ ਲਿਖਿ ਲਿਖਿ ਧਰਮੁ ਵੀਚਾਰੇ ॥
गावहि चितु गुपतु लिखि जाणहि लिखि लिखि धरमु वीचारे ॥
जीवों द्वारा किए जाने वाले कर्मों को लिखने वाले चित्र-गुप्त भी उस अकाल-पुरुष का यशोगान करते हैं तथा धर्मराज चित्रगुप्त द्वारा लिखे जाने वाले शुभाशुभ कर्मों का विचार करता है ।

ਗਾਵਹਿ ਈਸਰੁ ਬਰਮਾ ਦੇਵੀ ਸੋਹਨਿ ਸਦਾ ਸਵਾਰੇ ॥
गावहि ईसरु बरमा देवी सोहनि सदा सवारे ॥
परमात्मा द्वारा प्रतिपादित शिव, ब्रह्मा व उनकी देवियों (शक्ति) जो शोभायमान हैं, सदैव उसका स्तुति-गान करते हैं ।

ਗਾਵਹਿ ਇੰਦ ਇਦਾਸਣਿ ਬੈਠੇ ਦੇਵਤਿਆ ਦਰਿ ਨਾਲੇ ॥
गावहि इंद इदासणि बैठे देवतिआ दरि नाले ॥
हे निरंकार ! समस्त देवताओं व स्वर्ग का अधिपति इन्द्र अपने सिंहासन पर बैठा अन्य देवताओं के साथ मिलकर तुम्हारे द्वार पर खड़ा तुम्हारा यश गा रहे हैं ।

ਗਾਵਹਿ ਇੰਦ ਇਦਾਸਣਿ ਬੈਠੇ ਦੇਵਤਿਆ ਦਰਿ ਨਾਲੇ ॥
गावहि इंद इदासणि बैठे देवतिआ दरि नाले ॥
हे निरंकार ! समस्त देवताओं व स्वर्ग का अधिपति इन्द्र अपने सिंहासन पर बैठा अन्य देवताओं के साथ मिलकर तुम्हारे द्वार पर खड़ा तुम्हारा यश गा रहे हैं ।

ਗਾਵਹਿ ਸਿਧ ਸਮਾਧੀ ਅੰਦਰਿ ਗਾਵਨਿ ਸਾਧ ਵਿਚਾਰੇ ॥
गावहि सिध समाधी अंदरि गावनि साध विचारे ॥
सिद्ध लोग समाधियों में स्थित हुए तुम्हारा यश गाते हैं, जो विचारवान साधु हैं वे विवेक से यशोगान करते हैं ।

ਗਾਵਨਿ ਜਤੀ ਸਤੀ ਸੰਤੋਖੀ ਗਾਵਹਿ ਵੀਰ ਕਰਾਰੇ ॥
गावनि जती सती संतोखी गावहि वीर करारे ॥
तुम्हारा स्तुतिगान यति, सती और संतोषी व्यक्ति भी गाते हैं तथा पराक्रमी योद्धा भी तुम्हारी महिमा का गान करते हैं ।

ਗਾਵਨਿ ਪੰਡਿਤ ਪੜਨਿ ਰਖੀਸਰ ਜੁਗੁ ਜੁਗੁ ਵੇਦਾ ਨਾਲੇ ॥
गावनि पंडित पड़नि रखीसर जुगु जुगु वेदा नाले ॥
संसार के समस्त विद्वान व महान् जितेन्द्रिय ऋषि-मुनि युगों-युगों से वेदों को पढ़-पढ़ कर उस अकाल पुरुष का यशोगान कर रहे हैं ।

ਗਾਵਹਿ ਮੋਹਣੀਆ ਮਨੁ ਮੋਹਨਿ ਸੁਰਗਾ ਮਛ ਪਇਆਲੇ ॥
गावहि मोहणीआ मनु मोहनि सुरगा मछ पइआले ॥
मन को मोह लेने वाली समस्त सुन्दर स्त्रियां स्वर्ग लोक, मृत्यु लोक व पाताल लोक में तुम्हारा गुणगान कर रही हैं ।

ਗਾਵਨਿ ਰਤਨ ਉਪਾਏ ਤੇਰੇ ਅਠਸਠਿ ਤੀਰਥ ਨਾਲੇ ॥
गावनि रतन उपाए तेरे अठसठि तीरथ नाले ॥
निरंकार द्वारा उत्पन्न किए हुए चौदह रत्न, संसार के अठसठ तीर्थ तथा उन में विद्यमान संत जन (श्रेष्ठ जन) भी उसके यश को गाते हैं ।

ਗਾਵਹਿ ਜੋਧ ਮਹਾਬਲ ਸੂਰਾ ਗਾਵਹਿ ਖਾਣੀ ਚਾਰੇ ॥
गावहि जोध महाबल सूरा गावहि खाणी चारे ॥
सभी योद्धा, महाबली, शूरवीर अकाल पुरुष का यश गाते हैं, उत्पत्ति के चारों स्रोत (अण्डज, जरायुज, स्वेदज व उदभिज्ज) भी उसके गुणों को गाते हैं ।

ਗਾਵਹਿ ਖੰਡ ਮੰਡਲ ਵਰਭੰਡਾ ਕਰਿ ਕਰਿ ਰਖੇ ਧਾਰੇ ॥
गावहि खंड मंडल वरभंडा करि करि रखे धारे ॥
नवखण्ड, मण्डल व सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड, जो उस सृजनहार ने बना-बना कर धारण कर रखे हैं, वे सभी तेरी स्तुति गाते हैं ।

ਸੇਈ ਤੁਧੁਨੋ ਗਾਵਹਿ ਜੋ ਤੁਧੁ ਭਾਵਨਿ ਰਤੇ ਤੇਰੇ ਭਗਤ ਰਸਾਲੇ ॥
सेई तुधुनो गावहि जो तुधु भावनि रते तेरे भगत रसाले ॥
वास्तव में वे ही तेरी कीर्ति को गा सकते हैं जो तेरी भक्ति में लीन हैं, तेरे नाम के रसिया हैं, और जो तुझे अच्छे लगते हैं ।

ਹੋਰਿ ਕੇਤੇ ਗਾਵਨਿ ਸੇ ਮੈ ਚਿਤਿ ਨ ਆਵਨਿ ਨਾਨਕੁ ਕਿਆ ਵੀਚਾਰੇ ॥
होरि केते गावनि से मै चिति न आवनि नानकु किआ वीचारे ॥
अनेकानेक और भी कई ऐसे जीव मुझे स्मरण नहीं हो रहे हैं, जो तुम्हारा यशोगान करते हैं, हे नानक ! मैं कहाँ तक उनका विचार करूँ, अर्थात् यशोगान करने वाले जीवों की गणना मैं कहाँ तक करूँ ।

ਸੋਈ ਸੋਈ ਸਦਾ ਸਚੁ ਸਾਹਿਬੁ ਸਾਚਾ ਸਾਚੀ ਨਾਈ ॥
सोई सोई सदा सचु साहिबु साचा साची नाई ॥
वह सत्यस्वरूप अकाल पुरुष भूतकाल में था, वही सद्गुणी निरंकार वर्तमान में भी है

ਹੈ ਭੀ ਹੋਸੀ ਜਾਇ ਨ ਜਾਸੀ ਰਚਨਾ ਜਿਨਿ ਰਚਾਈ ॥
है भी होसी जाइ न जासी रचना जिनि रचाई ॥
वह भविष्य में सदैव रहेगा, वह सृजनहार परमात्मा न जन्म लेता है और न ही उसका नाश होता है ।

ਰੰਗੀ ਰੰਗੀ ਭਾਤੀ ਕਰਿ ਕਰਿ ਜਿਨਸੀ ਮਾਇਆ ਜਿਨਿ ਉਪਾਈ ॥
रंगी रंगी भाती करि करि जिनसी माइआ जिनि उपाई ॥
जिस सृष्टि रचयिता ईश्वर ने रंग-बिरंगी, तरह-तरह के आकार वाली व अनेकानेक जीवों की उत्पत्ति अपनी माया द्वारा की है ।

ਕਰਿ ਕਰਿ ਵੇਖੈ ਕੀਤਾ ਆਪਣਾ ਜਿਵ ਤਿਸ ਦੀ ਵਡਿਆਈ ॥
करि करि वेखै कीता आपणा जिव तिस दी वडिआई ॥
अपनी इस उत्पत्ति को कर-करके वह अपनी रुचि अनुसार ही देखता है अर्थात् उनकी देखभाल अपनी इच्छानुसार ही करता है ।

ਜੋ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਸੋਈ ਕਰਸੀ ਹੁਕਮੁ ਨ ਕਰਣਾ ਜਾਈ ॥
जो तिसु भावै सोई करसी हुकमु न करणा जाई ॥
जो भी उस अकाल पुरुष को भला लगता है वही कार्य वह करता है और भविष्य में करेगा, इसके प्रति उसको आदेश करने वाला उसके समान कोई नहीं है ।

ਸੋ ਪਾਤਿਸਾਹੁ ਸਾਹਾ ਪਾਤਿਸਾਹਿਬੁ ਨਾਨਕ ਰਹਣੁ ਰਜਾਈ ॥੨੭॥
सो पातिसाहु साहा पातिसाहिबु नानक रहणु रजाई ॥२७॥
गुरु नानक जी का फरमान है कि हे मानव ! वह ईश्वर शाहों का शाह अर्थात शहंशाह है, उसकी आज्ञा में रहना ही उचित है॥ २७ ॥

ਮੁੰਦਾ ਸੰਤੋਖੁ ਸਰਮੁ ਪਤੁ ਝੋਲੀ ਧਿਆਨ ਕੀ ਕਰਹਿ ਬਿਭੂਤਿ ॥
मुंदा संतोखु सरमु पतु झोली धिआन की करहि बिभूति ॥
गुरु जी कहते हैं कि हे मानव योगी ! तुम संतोष रूपी मुद्राएँ, दुष्कर्मों से लाज रूपी पात्र, पाप रहित होकर लोक-परलोक में बनाई जाने वाली प्रतिष्ठा रूपी चोली ग्रहण कर तथा शरीर को प्रभु की नाम-सिमरन रूपी विभूति लगाकर रख ।

ਖਿੰਥਾ ਕਾਲੁ ਕੁਆਰੀ ਕਾਇਆ ਜੁਗਤਿ ਡੰਡਾ ਪਰਤੀਤਿ ॥
खिंथा कालु कुआरी काइआ जुगति डंडा परतीति ॥
मृत्यु का स्मरण करना तेरी गुदड़ी है, शरीर का पवित्र रहना योग की युक्ति है, अकाल पुरुष पर दृढ़ विश्वास तुम्हारा डण्डा है । इन सब सदाचारों को ग्रहण करना ही वास्तविक योगी भेष है ।

ਆਈ ਪੰਥੀ ਸਗਲ ਜਮਾਤੀ ਮਨਿ ਜੀਤੈ ਜਗੁ ਜੀਤੁ ॥
आई पंथी सगल जमाती मनि जीतै जगु जीतु ॥
संसार के समस्त जीवों में तुम्हारा प्रेम हो अर्थात् उनके दुख-सुख को तुम अपना दुख-सुख अनुभव करो, यही तुम्हारा आई पंथ(योगियों का श्रेष्ठ पंथ ) है । काम आदिक विकारों से मन को जीत लेना जगत् पर विजय प्राप्त कर लेने के समान है ।

ਆਦੇਸੁ ਤਿਸੈ ਆਦੇਸੁ ॥
आदेसु तिसै आदेसु ॥
नमस्कार है, सिर्फ उस सर्गुण स्वरूप निरंकार को नमस्कार है ।

ਆਦਿ ਅਨੀਲੁ ਅਨਾਦਿ ਅਨਾਹਤਿ ਜੁਗੁ ਜੁਗੁ ਏਕੋ ਵੇਸੁ ॥੨੮॥
आदि अनीलु अनादि अनाहति जुगु जुगु एको वेसु ॥२८॥
जो सभी का मूल, रंग रहित, पवित्र स्वरूप, आदि रहित, अनश्वर व अपरिवर्तनीय स्वरूप है॥ २८ ॥

ਭੁਗਤਿ ਗਿਆਨੁ ਦਇਆ ਭੰਡਾਰਣਿ ਘਟਿ ਘਟਿ ਵਾਜਹਿ ਨਾਦ ॥
भुगति गिआनु दइआ भंडारणि घटि घटि वाजहि नाद ॥
हे मानव ! निरंकार की सर्व-व्यापकता के ज्ञान का भण्डार होना तुम्हारा भोजन है, तुम्हारे हृदय की दया भण्डारिन होगी, क्योंकि दया-भाव रखने से ही सद्गुणों की प्राप्ति होती है। घट-घट में जो चेतन सत्ता प्रकट हो रही है वह नाद बजने के समान है।

ਆਪਿ ਨਾਥੁ ਨਾਥੀ ਸਭ ਜਾ ਕੀ ਰਿਧਿ ਸਿਧਿ ਅਵਰਾ ਸਾਦ ॥
आपि नाथु नाथी सभ जा की रिधि सिधि अवरा साद ॥
जिसने सम्पूर्ण सृष्टि को एक सूत्र में बांध रखा है, वही सृजनहार परमात्मा नाथ है, सभी ऋद्धियों-सिद्धियाँ अन्य प्रकार का स्वाद हैं।

ਸੰਜੋਗੁ ਵਿਜੋਗੁ ਦੁਇ ਕਾਰ ਚਲਾਵਹਿ ਲੇਖੇ ਆਵਹਿ ਭਾਗ ॥ 
संजोगु विजोगु दुइ कार चलावहि लेखे आवहि भाग ॥
संयोग व वियोग रूपी नियम दोनों मिलकर इस सृष्टि का कार्य चला रहे हैं, कर्मानुसार ही जीवों को अपने-अपने भाग्य की प्राप्ति होती है l

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