ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਤਿਸ ਨੋ ਆਖੀਐ ਜਿ ਸਭ ਮਹਿ ਰਹਿਆ ਸਮਾਇ ॥
वाहु वाहु तिस नो आखीऐ जि सभ महि रहिआ समाइ ॥
हमें उसका ही गुणगान करना चाहिए जो सब जीवों में समाया हुआ है।
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਤਿਸ ਨੋ ਆਖੀਐ ਜਿ ਦੇਦਾ ਰਿਜਕੁ ਸਬਾਹਿ ॥
वाहु वाहु तिस नो आखीऐ जि देदा रिजकु सबाहि ॥
जो हमें भोजन प्रदान करता है, उसे ही वाह-वाह कहना चाहिए।
ਨਾਨਕ ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਇਕੋ ਕਰਿ ਸਾਲਾਹੀਐ ਜਿ ਸਤਿਗੁਰ ਦੀਆ ਦਿਖਾਇ ॥੧॥
नानक वाहु वाहु इको करि सालाहीऐ जि सतिगुर दीआ दिखाइ ॥१॥
हे नानक ! वाह-वाह करके उस एक ईश्वर की ही प्रशंसा करनी चाहिए, जिसके सतिगुरु ने दर्शन करवाए हैं॥ १॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਗੁਰਮੁਖ ਸਦਾ ਕਰਹਿ ਮਨਮੁਖ ਮਰਹਿ ਬਿਖੁ ਖਾਇ ॥
वाहु वाहु गुरमुख सदा करहि मनमुख मरहि बिखु खाइ ॥
गुरुमुख व्यक्ति सदैव ही अपने प्रभु की वाह-वाह (स्तुतिगान) करते हैं और मनमुख मोह-माया रूपी विष सेवन करके मर जाते हैं।
ਓਨਾ ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਨ ਭਾਵਈ ਦੁਖੇ ਦੁਖਿ ਵਿਹਾਇ ॥
ओना वाहु वाहु न भावई दुखे दुखि विहाइ ॥
उन्हें वाह-वाह (स्तुतिगान) करना अच्छा नहीं लगता इसलिए उनका सारा जीवन दुख में ही व्यतीत होता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੀਵਣਾ ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਕਰਹਿ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥
गुरमुखि अम्रितु पीवणा वाहु वाहु करहि लिव लाइ ॥
गुरुमुख नामामृत पान करते हैं और अपनी सुरति लगाकर परमात्मा की स्तुति करते रहते हैं।
ਨਾਨਕ ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਕਰਹਿ ਸੇ ਜਨ ਨਿਰਮਲੇ ਤ੍ਰਿਭਵਣ ਸੋਝੀ ਪਾਇ ॥੨॥
नानक वाहु वाहु करहि से जन निरमले त्रिभवण सोझी पाइ ॥२॥
हे नानक ! जो व्यक्ति भगवान की स्तुति करते हैं, वे निर्मल हो जाते हैं और उन्हें तीन लोकों का ज्ञान हो जाता है ॥२॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी॥
ਹਰਿ ਕੈ ਭਾਣੈ ਗੁਰੁ ਮਿਲੈ ਸੇਵਾ ਭਗਤਿ ਬਨੀਜੈ ॥
हरि कै भाणै गुरु मिलै सेवा भगति बनीजै ॥
परमात्मा की इच्छा से ही गुरु मिलता है और गुरु की सेवा करने से प्रभु-भक्ति की युक्ति बनती है।
ਹਰਿ ਕੈ ਭਾਣੈ ਹਰਿ ਮਨਿ ਵਸੈ ਸਹਜੇ ਰਸੁ ਪੀਜੈ ॥
हरि कै भाणै हरि मनि वसै सहजे रसु पीजै ॥
ईश्वरेच्छा से ही हरि प्राणी के मन में निवास करता है और सहज ही हरि-रस का पान करता है।
ਹਰਿ ਕੈ ਭਾਣੈ ਸੁਖੁ ਪਾਈਐ ਹਰਿ ਲਾਹਾ ਨਿਤ ਲੀਜੈ ॥
हरि कै भाणै सुखु पाईऐ हरि लाहा नित लीजै ॥
परमात्मा की मर्जी से ही मनुष्य को सुख प्राप्त होता है और नित्य ही नाम रूपी लाभ की उपलिब्ध होती है।
ਹਰਿ ਕੈ ਤਖਤਿ ਬਹਾਲੀਐ ਨਿਜ ਘਰਿ ਸਦਾ ਵਸੀਜੈ ॥
हरि कै तखति बहालीऐ निज घरि सदा वसीजै ॥
उस पवित्र पुरुष को हरि के राज सिंहासन पर विराजमान किया जाता है और वह सदा अपने घर में रहता है।
ਹਰਿ ਕਾ ਭਾਣਾ ਤਿਨੀ ਮੰਨਿਆ ਜਿਨਾ ਗੁਰੂ ਮਿਲੀਜੈ ॥੧੬॥
हरि का भाणा तिनी मंनिआ जिना गुरू मिलीजै ॥१६॥
ईश्वरेच्छा को वही सहर्ष स्वीकार करते हैं, जिन्हें गुरु मिल जाता है ॥१६॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक महला ३॥
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਸੇ ਜਨ ਸਦਾ ਕਰਹਿ ਜਿਨੑ ਕਉ ਆਪੇ ਦੇਇ ਬੁਝਾਇ ॥
वाहु वाहु से जन सदा करहि जिन्ह कउ आपे देइ बुझाइ ॥
जिन्हें परमात्मा आप समझ प्रदान करता है, वे जीव सदा वाह-वाह (स्तुतिगान) करते रहते हैं।
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਕਰਤਿਆ ਮਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਹੋਵੈ ਹਉਮੈ ਵਿਚਹੁ ਜਾਇ ॥
वाहु वाहु करतिआ मनु निरमलु होवै हउमै विचहु जाइ ॥
भगवान का गुणगान करने से मन निर्मल हो जाता है और अन्तर्मन से अहंकार दूर हो जाता है।
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਗੁਰਸਿਖੁ ਜੋ ਨਿਤ ਕਰੇ ਸੋ ਮਨ ਚਿੰਦਿਆ ਫਲੁ ਪਾਇ ॥
वाहु वाहु गुरसिखु जो नित करे सो मन चिंदिआ फलु पाइ ॥
गुरु का शिष्य जो नित्य ही प्रभु की स्तुति करता है, वह मनोवांछित फल प्राप्त कर लेता है।
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਕਰਹਿ ਸੇ ਜਨ ਸੋਹਣੇ ਹਰਿ ਤਿਨੑ ਕੈ ਸੰਗਿ ਮਿਲਾਇ ॥
वाहु वाहु करहि से जन सोहणे हरि तिन्ह कै संगि मिलाइ ॥
जो हरि की स्तुति करते हैं, वे सेवक सुन्दर हैं। हे हरि ! मेरा मिलन उनसे करवा दे,
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਹਿਰਦੈ ਉਚਰਾ ਮੁਖਹੁ ਭੀ ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਕਰੇਉ ॥
वाहु वाहु हिरदै उचरा मुखहु भी वाहु वाहु करेउ ॥
ताकि मैं अपने हृदय में स्तुति करता रहूँ और अपने मुख से भी तेरा गुणगान ही उच्चरित करता रहूँ।
ਨਾਨਕ ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਜੋ ਕਰਹਿ ਹਉ ਤਨੁ ਮਨੁ ਤਿਨੑ ਕਉ ਦੇਉ ॥੧॥
नानक वाहु वाहु जो करहि हउ तनु मनु तिन्ह कउ देउ ॥१॥
हे नानक ! जो व्यक्ति परमात्मा की प्रशंसा करते हैं, मैं अपना तन-मन उनको न्यौछावर करता हूँ ॥१॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਸਾਹਿਬੁ ਸਚੁ ਹੈ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਜਾ ਕਾ ਨਾਉ ॥
वाहु वाहु साहिबु सचु है अम्रितु जा का नाउ ॥
मेरा सत्यस्वरूप मालिक धन्य-धन्य है, जिसका नाम अमृत रूप है।
ਜਿਨਿ ਸੇਵਿਆ ਤਿਨਿ ਫਲੁ ਪਾਇਆ ਹਉ ਤਿਨ ਬਲਿਹਾਰੈ ਜਾਉ ॥
जिनि सेविआ तिनि फलु पाइआ हउ तिन बलिहारै जाउ ॥
जिन्होंने मेरे मालिक-प्रभु की सेवा-भक्ति की है, उन्हें नाम-फल की प्राप्ति हो गई है, मैं उन महापुरुषों पर बलिहारी जाता हूँ।
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਗੁਣੀ ਨਿਧਾਨੁ ਹੈ ਜਿਸ ਨੋ ਦੇਇ ਸੁ ਖਾਇ ॥
वाहु वाहु गुणी निधानु है जिस नो देइ सु खाइ ॥
ईश्वर गुणों का भण्डार है, जिसे वह यह भण्डार देता है, वही इसे चखता है।
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਜਲਿ ਥਲਿ ਭਰਪੂਰੁ ਹੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਾਇਆ ਜਾਇ ॥
वाहु वाहु जलि थलि भरपूरु है गुरमुखि पाइआ जाइ ॥
परमात्मा जल एवं धरती में सर्वव्यापक है और गुरुमुख बनकर ही उसे पाया जाता है।
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਗੁਰਸਿਖ ਨਿਤ ਸਭ ਕਰਹੁ ਗੁਰ ਪੂਰੇ ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਭਾਵੈ ॥
वाहु वाहु गुरसिख नित सभ करहु गुर पूरे वाहु वाहु भावै ॥
हे गुरु के शिष्यो ! नित्य ही सभी परमात्मा की स्तुति करो। पूर्ण गुरु को प्रभु की महिमा अच्छी लगती है।
ਨਾਨਕ ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਜੋ ਮਨਿ ਚਿਤਿ ਕਰੇ ਤਿਸੁ ਜਮਕੰਕਰੁ ਨੇੜਿ ਨ ਆਵੈ ॥੨॥
नानक वाहु वाहु जो मनि चिति करे तिसु जमकंकरु नेड़ि न आवै ॥२॥
हे नानक ! जो मनुष्य अपने मन एवं चित्त से प्रभु का गुणगान करता है, उसके निकट यमदूत नहीं आता॥ २॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी ॥
ਹਰਿ ਜੀਉ ਸਚਾ ਸਚੁ ਹੈ ਸਚੀ ਗੁਰਬਾਣੀ ॥
हरि जीउ सचा सचु है सची गुरबाणी ॥
पूज्य परमेश्वर परम-सत्य है तथा गुरु की सच्ची वाणी भी उसके यश में है।
ਸਤਿਗੁਰ ਤੇ ਸਚੁ ਪਛਾਣੀਐ ਸਚਿ ਸਹਜਿ ਸਮਾਣੀ ॥
सतिगुर ते सचु पछाणीऐ सचि सहजि समाणी ॥
सतगुरु के माध्यम से सत्य की पहचान होती है और मनुष्य सहज ही सत्य में समा जाता है।
ਅਨਦਿਨੁ ਜਾਗਹਿ ਨਾ ਸਵਹਿ ਜਾਗਤ ਰੈਣਿ ਵਿਹਾਣੀ ॥
अनदिनु जागहि ना सवहि जागत रैणि विहाणी ॥
ऐसे पवित्र पुरुष रात-दिन जाग्रत रहते हैं, वे सोते नहीं और जागते ही उनकी जीवन-रात्रि व्यतीत होती है।
ਗੁਰਮਤੀ ਹਰਿ ਰਸੁ ਚਾਖਿਆ ਸੇ ਪੁੰਨ ਪਰਾਣੀ ॥
गुरमती हरि रसु चाखिआ से पुंन पराणी ॥
जो गुरु की शिक्षा द्वारा हरि रस को चखते हैं, वे प्राणी पुण्य के पात्र हैं।
ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਕਿਨੈ ਨ ਪਾਇਓ ਪਚਿ ਮੁਏ ਅਜਾਣੀ ॥੧੭॥
बिनु गुर किनै न पाइओ पचि मुए अजाणी ॥१७॥
गुरु के बिना किसी को भी परमात्मा प्राप्त नहीं हुआ और मूर्ख लोग खप-खप कर मर जाते है।
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक महला ३॥
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਬਾਣੀ ਨਿਰੰਕਾਰ ਹੈ ਤਿਸੁ ਜੇਵਡੁ ਅਵਰੁ ਨ ਕੋਇ ॥
वाहु वाहु बाणी निरंकार है तिसु जेवडु अवरु न कोइ ॥
उस निराकार परमात्मा की वाणी वाह ! वाह ! प्रशंसनीय है और उस जैसा महान् अन्य कोई नहीं।
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਅਗਮ ਅਥਾਹੁ ਹੈ ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਸਚਾ ਸੋਇ ॥
वाहु वाहु अगम अथाहु है वाहु वाहु सचा सोइ ॥
वह परम सत्य अगम्य एवं अथाह प्रभु धन्य ! धन्य ! है।
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਵੇਪਰਵਾਹੁ ਹੈ ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਕਰੇ ਸੁ ਹੋਇ ॥
वाहु वाहु वेपरवाहु है वाहु वाहु करे सु होइ ॥
वह बेपरवाह है, जो कुछ वह करता है, वही होता है।
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਨਾਮੁ ਹੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਾਵੈ ਕੋਇ ॥
वाहु वाहु अम्रित नामु है गुरमुखि पावै कोइ ॥
उसका नाम अमृत रूप है, जिसकी प्राप्ति गुरुमुख को ही होती है।
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਕਰਮੀ ਪਾਈਐ ਆਪਿ ਦਇਆ ਕਰਿ ਦੇਇ ॥
वाहु वाहु करमी पाईऐ आपि दइआ करि देइ ॥
प्रभु की स्तुति मनुष्य को अहोभाग्य से ही मिलती है और वह स्वयं ही दया करके इसे प्रदान करता है।