ਨਾਨਕ ਮਨ ਹੀ ਤੇ ਮਨੁ ਮਾਨਿਆ ਨਾ ਕਿਛੁ ਮਰੈ ਨ ਜਾਇ ॥੨॥
नानक मन ही ते मनु मानिआ ना किछु मरै न जाइ ॥२॥
हे नानक ! मन के द्वारा मन को आत्मिक सुख मिलता है और फिर न ही कुछ मरता है, न ही जाता है॥ २॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी।
ਕਾਇਆ ਕੋਟੁ ਅਪਾਰੁ ਹੈ ਮਿਲਣਾ ਸੰਜੋਗੀ ॥
काइआ कोटु अपारु है मिलणा संजोगी ॥
मानव शरीर एक अपार किला है जो संयोग से ही प्राप्त होता है।
ਕਾਇਆ ਅੰਦਰਿ ਆਪਿ ਵਸਿ ਰਹਿਆ ਆਪੇ ਰਸ ਭੋਗੀ ॥
काइआ अंदरि आपि वसि रहिआ आपे रस भोगी ॥
इस शरीर में स्वयं प्रभु निवास कर रहा है और वह स्वयं ही रस भोगी है।
ਆਪਿ ਅਤੀਤੁ ਅਲਿਪਤੁ ਹੈ ਨਿਰਜੋਗੁ ਹਰਿ ਜੋਗੀ ॥
आपि अतीतु अलिपतु है निरजोगु हरि जोगी ॥
परमात्मा स्वयं अतीत एवं अलिप्त रहता है, वह योगी होने के बावजूद विरक्त है।
ਜੋ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਸੋ ਕਰੇ ਹਰਿ ਕਰੇ ਸੁ ਹੋਗੀ ॥
जो तिसु भावै सो करे हरि करे सु होगी ॥
जो उसे अच्छा लगता है, वह वही कुछ करता है और जो कुछ प्रभु करता है, वही होता है।
ਹਰਿ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਈਐ ਲਹਿ ਜਾਹਿ ਵਿਜੋਗੀ ॥੧੩॥
हरि गुरमुखि नामु धिआईऐ लहि जाहि विजोगी ॥१३॥
गुरुमुख बनकर नाम की आराधना करने से प्रभु से विछोह मिट जाता है ॥१३॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक महला ३॥
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਆਪਿ ਅਖਾਇਦਾ ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਸਚੁ ਸੋਇ ॥
वाहु वाहु आपि अखाइदा गुर सबदी सचु सोइ ॥
वह सत्यस्वरूप परमात्मा गुरु के शब्द द्वारा अपनी ‘वाह-वाह’ (महिमा) करवाता है।
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਸਿਫਤਿ ਸਲਾਹ ਹੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਬੂਝੈ ਕੋਇ ॥
वाहु वाहु सिफति सलाह है गुरमुखि बूझै कोइ ॥
कोई विरला गुरुमुख ही इस तथ्य को समझता है कि ‘वाह-वाह’ प्रभु की उस्तति-महिमा है।
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਬਾਣੀ ਸਚੁ ਹੈ ਸਚਿ ਮਿਲਾਵਾ ਹੋਇ ॥
वाहु वाहु बाणी सचु है सचि मिलावा होइ ॥
यह सच्ची वाणी भी ‘वाह-वाह’ है, जिससे मनुष्य सत्य (प्रभु) को मिल जाता है।
ਨਾਨਕ ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਕਰਤਿਆ ਪ੍ਰਭੁ ਪਾਇਆ ਕਰਮਿ ਪਰਾਪਤਿ ਹੋਇ ॥੧॥
नानक वाहु वाहु करतिआ प्रभु पाइआ करमि परापति होइ ॥१॥
हे नानक ! वाह-वाह (स्तुतिगान) करते हुए ही परमात्मा के करम (कृपा) से ही उसको पाया जा सकता है ॥१॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਕਰਤੀ ਰਸਨਾ ਸਬਦਿ ਸੁਹਾਈ ॥
वाहु वाहु करती रसना सबदि सुहाई ॥
वाह-वाह (गुणानुवाद) करती हुई रसना गुरु-शब्द से सुन्दर लगती है।
ਪੂਰੈ ਸਬਦਿ ਪ੍ਰਭੁ ਮਿਲਿਆ ਆਈ ॥
पूरै सबदि प्रभु मिलिआ आई ॥
पूर्ण शब्द-गुरु द्वारा प्रभु आकर मनुष्य को मिल जाता है।
ਵਡਭਾਗੀਆ ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਮੁਹਹੁ ਕਢਾਈ ॥
वडभागीआ वाहु वाहु मुहहु कढाई ॥
भाग्यवान ही अपने मुख से भगवान की वाह-वाह (गुणगान) करते हैं।
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਕਰਹਿ ਸੇਈ ਜਨ ਸੋਹਣੇ ਤਿਨੑ ਕਉ ਪਰਜਾ ਪੂਜਣ ਆਈ ॥
वाहु वाहु करहि सेई जन सोहणे तिन्ह कउ परजा पूजण आई ॥
वे सेवक सुन्दर हैं, जो परमेश्वर की वाह-वाह (स्तुतिगान) करते हैं, प्रजा उनकी पूजा करने के लिए आती है।
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਕਰਮਿ ਪਰਾਪਤਿ ਹੋਵੈ ਨਾਨਕ ਦਰਿ ਸਚੈ ਸੋਭਾ ਪਾਈ ॥੨॥
वाहु वाहु करमि परापति होवै नानक दरि सचै सोभा पाई ॥२॥
हे नानक ! करम से ही प्रभु की वाह-वाह (उस्तति) प्राप्त होती है और मनुष्य सच्चे द्वार पर शोभा पाता है ॥२॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी॥
ਬਜਰ ਕਪਾਟ ਕਾਇਆ ਗੜ੍ਹ੍ਹ ਭੀਤਰਿ ਕੂੜੁ ਕੁਸਤੁ ਅਭਿਮਾਨੀ ॥
बजर कपाट काइआ गड़्ह भीतरि कूड़ु कुसतु अभिमानी ॥
काया रूपी दुर्ग के भीतर झूठ, फरेब एवं अभिमान के वज कपाट लगे हुए हैं।
ਭਰਮਿ ਭੂਲੇ ਨਦਰਿ ਨ ਆਵਨੀ ਮਨਮੁਖ ਅੰਧ ਅਗਿਆਨੀ ॥
भरमि भूले नदरि न आवनी मनमुख अंध अगिआनी ॥
भ्रम में भूले हुए अन्धे एवं अज्ञानी स्वेच्छाचारी उनको देखते ही नहीं।
ਉਪਾਇ ਕਿਤੈ ਨ ਲਭਨੀ ਕਰਿ ਭੇਖ ਥਕੇ ਭੇਖਵਾਨੀ ॥
उपाइ कितै न लभनी करि भेख थके भेखवानी ॥
वे किसी भी उपाय द्वारा कपाट ढूंढ नहीं पाते। भेषधारी भेष धारण कर-करके थक गए हैं।
ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਖੋਲਾਈਅਨੑਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਜਪਾਨੀ ॥
गुर सबदी खोलाईअन्हि हरि नामु जपानी ॥
जो व्यक्ति हरि-नाम जपते हैं, गुरु के शब्द द्वारा उनके कपाट खुल जाते हैं।
ਹਰਿ ਜੀਉ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਬਿਰਖੁ ਹੈ ਜਿਨ ਪੀਆ ਤੇ ਤ੍ਰਿਪਤਾਨੀ ॥੧੪॥
हरि जीउ अम्रित बिरखु है जिन पीआ ते त्रिपतानी ॥१४॥
श्रीहरि अमृत का वृक्ष है, जो इस अमृत का पान करते हैं, वे तृप्त हो जाते हैं।॥१४॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक महला ३॥
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਕਰਤਿਆ ਰੈਣਿ ਸੁਖਿ ਵਿਹਾਇ ॥
वाहु वाहु करतिआ रैणि सुखि विहाइ ॥
वाह-वाह अर्थात् ईश्वर का गुणानुवाद करने से जीवन-रात्रि सुखद व्यतीत होती है।
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਕਰਤਿਆ ਸਦਾ ਅਨੰਦੁ ਹੋਵੈ ਮੇਰੀ ਮਾਇ ॥
वाहु वाहु करतिआ सदा अनंदु होवै मेरी माइ ॥
हे मेरी माँ! ईश्वर का गुणगान करने से मनुष्य सदा आनंद में रहता है।
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਕਰਤਿਆ ਹਰਿ ਸਿਉ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥
वाहु वाहु करतिआ हरि सिउ लिव लाइ ॥
वाह-वाह (स्तुतिगान) करने से मनुष्य की सुरति हरि के साथ लगी रहती है।
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਕਰਮੀ ਬੋਲੈ ਬੋਲਾਇ ॥
वाहु वाहु करमी बोलै बोलाइ ॥
प्रभु की कृपा से ही मनुष्य ‘वाह-वाह’ की वाणी बोलता एवं बुलवाता है।
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਕਰਤਿਆ ਸੋਭਾ ਪਾਇ ॥
वाहु वाहु करतिआ सोभा पाइ ॥
वाह-वाह (प्रभु की उस्तति) करने से मनुष्य को लोक-परलोक में शोभा मिलती है।
ਨਾਨਕ ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਸਤਿ ਰਜਾਇ ॥੧॥
नानक वाहु वाहु सति रजाइ ॥१॥
नानक ! इन्सान सच्चे प्रभु की इच्छा में ही वाह-वाह (स्तुतिगान) करता है॥ १॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਬਾਣੀ ਸਚੁ ਹੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਲਧੀ ਭਾਲਿ ॥
वाहु वाहु बाणी सचु है गुरमुखि लधी भालि ॥
वाह-वाह की वाणी सत्य है, जिसे गुरुमुख बनकर मनुष्य ढूंढ लेता है।
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਸਬਦੇ ਉਚਰੈ ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਹਿਰਦੈ ਨਾਲਿ ॥
वाहु वाहु सबदे उचरै वाहु वाहु हिरदै नालि ॥
वाह-वाह का उच्चारण गुरु के शब्द से हृदय से करना चाहिए।
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਕਰਤਿਆ ਹਰਿ ਪਾਇਆ ਸਹਜੇ ਗੁਰਮੁਖਿ ਭਾਲਿ ॥
वाहु वाहु करतिआ हरि पाइआ सहजे गुरमुखि भालि ॥
वाह-वाह करते हुए गुरुमुख अपनी खोज द्वारा सहज ही प्रभु को प्राप्त कर लेते हैं।
ਸੇ ਵਡਭਾਗੀ ਨਾਨਕਾ ਹਰਿ ਹਰਿ ਰਿਦੈ ਸਮਾਲਿ ॥੨॥
से वडभागी नानका हरि हरि रिदै समालि ॥२॥
हे नानक ! वे व्यक्ति खुशकिस्मत हैं, जो भगवान को हृदय में स्मरण करते हैं ॥२॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी।
ਏ ਮਨਾ ਅਤਿ ਲੋਭੀਆ ਨਿਤ ਲੋਭੇ ਰਾਤਾ ॥
ए मना अति लोभीआ नित लोभे राता ॥
यह मन अत्यंत लोभी है जो नित्य ही लोभ में आसक्त रहता है।
ਮਾਇਆ ਮਨਸਾ ਮੋਹਣੀ ਦਹ ਦਿਸ ਫਿਰਾਤਾ ॥
माइआ मनसा मोहणी दह दिस फिराता ॥
मोहिनी माया की तृष्णा में मन दसों दिशाओं में भटकता फिरता है।
ਅਗੈ ਨਾਉ ਜਾਤਿ ਨ ਜਾਇਸੀ ਮਨਮੁਖਿ ਦੁਖੁ ਖਾਤਾ ॥
अगै नाउ जाति न जाइसी मनमुखि दुखु खाता ॥
आगे परलोक में बड़ा नाम एवं जाति (कुलीनता) साथ नहीं जाते। मनमुख मनुष्य को दु:ख ही निगल जाता है,
ਰਸਨਾ ਹਰਿ ਰਸੁ ਨ ਚਖਿਓ ਫੀਕਾ ਬੋਲਾਤਾ ॥
रसना हरि रसु न चखिओ फीका बोलाता ॥
क्योंकि उसकी जिव्हा हरि-रस का पान नहीं करती और कटु वचन ही बोलती है।
ਜਿਨਾ ਗੁਰਮੁਖਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਚਾਖਿਆ ਸੇ ਜਨ ਤ੍ਰਿਪਤਾਤਾ ॥੧੫॥
जिना गुरमुखि अम्रितु चाखिआ से जन त्रिपताता ॥१५॥
जो मनुष्य गुरु के सान्निध्य में रहकर नामामृत का पान करते हैं, वे सेवक तृप्त रहते हैं।॥१५॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक महला ३ ॥
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਤਿਸ ਨੋ ਆਖੀਐ ਜਿ ਸਚਾ ਗਹਿਰ ਗੰਭੀਰੁ ॥
वाहु वाहु तिस नो आखीऐ जि सचा गहिर ग्मभीरु ॥
वाह-वाह उसे कहना चाहिए जो सत्यस्वरूप एवं गहन-गंभीर है।
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਤਿਸ ਨੋ ਆਖੀਐ ਜਿ ਗੁਣਦਾਤਾ ਮਤਿ ਧੀਰੁ ॥
वाहु वाहु तिस नो आखीऐ जि गुणदाता मति धीरु ॥
वाह-वाह उसे ही कहना चाहिए जो गुणदाता एवं धैर्य-बुद्धि प्रदान करने वाला है।