Hindi Page 519

ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਜਾਣੈ ਜਾਣੁ ਬੁਝਿ ਵੀਚਾਰਦਾ ॥
सभु किछु जाणै जाणु बुझि वीचारदा ॥
जाननहार प्रभु सब कुछ जानता है एवं समझ कर अपनी रचना की तरफ ध्यान देता है।

ਅਨਿਕ ਰੂਪ ਖਿਨ ਮਾਹਿ ਕੁਦਰਤਿ ਧਾਰਦਾ ॥
अनिक रूप खिन माहि कुदरति धारदा ॥
वह अपनी कुदरत द्वारा एक क्षण में ही अनेक रूप धारण कर लेता है और

ਜਿਸ ਨੋ ਲਾਇ ਸਚਿ ਤਿਸਹਿ ਉਧਾਰਦਾ ॥
जिस नो लाइ सचि तिसहि उधारदा ॥
जिसे सत्य के साथ लगाता है, उसका उद्धार कर देता है।

ਜਿਸ ਦੈ ਹੋਵੈ ਵਲਿ ਸੁ ਕਦੇ ਨ ਹਾਰਦਾ ॥
जिस दै होवै वलि सु कदे न हारदा ॥
जिसके पक्ष में वह परमात्मा है, वह कदाचित नहीं हारता।

ਸਦਾ ਅਭਗੁ ਦੀਬਾਣੁ ਹੈ ਹਉ ਤਿਸੁ ਨਮਸਕਾਰਦਾ ॥੪॥
सदा अभगु दीबाणु है हउ तिसु नमसकारदा ॥४॥
उसका दरबार सदा अटल है, मैं उसे कोटि-कोटि नमन करता हूँ ॥४॥

ਸਲੋਕ ਮਃ ੫ ॥
सलोक मः ५ ॥
श्लोक महला ५॥

ਕਾਮੁ ਕ੍ਰੋਧੁ ਲੋਭੁ ਛੋਡੀਐ ਦੀਜੈ ਅਗਨਿ ਜਲਾਇ ॥
कामु क्रोधु लोभु छोडीऐ दीजै अगनि जलाइ ॥
हे नानक ! काम, क्रोध एवं लोभ को छोड़कर उन्हें अग्नि में जला देना चाहिए।

ਜੀਵਦਿਆ ਨਿਤ ਜਾਪੀਐ ਨਾਨਕ ਸਾਚਾ ਨਾਉ ॥੧॥
जीवदिआ नित जापीऐ नानक साचा नाउ ॥१॥
जब तक प्राण हैं, तब तक नित्य सत्यनाम का सुमिरन करना चाहिए ॥१॥

ਮਃ ੫ ॥
मः ५ ॥
महला ५॥

ਸਿਮਰਤ ਸਿਮਰਤ ਪ੍ਰਭੁ ਆਪਣਾ ਸਭ ਫਲ ਪਾਏ ਆਹਿ ॥
सिमरत सिमरत प्रभु आपणा सभ फल पाए आहि ॥
अपने प्रभु का सिमरन करने से मैंने सभी फल प्राप्त कर लिए हैं।

ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਅਰਾਧਿਆ ਗੁਰ ਪੂਰੈ ਦੀਆ ਮਿਲਾਇ ॥੨॥
नानक नामु अराधिआ गुर पूरै दीआ मिलाइ ॥२॥
हे नानक ! मैंने नाम की आराधना की है और पूर्ण गुरु ने मुझे परमात्मा से मिला दिया है ॥२॥

ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी॥

ਸੋ ਮੁਕਤਾ ਸੰਸਾਰਿ ਜਿ ਗੁਰਿ ਉਪਦੇਸਿਆ ॥
सो मुकता संसारि जि गुरि उपदेसिआ ॥
जिसे भी गुरु ने उपदेश दिया है, वह इस संसार में मोह-माया के बंधनों से मुक्ति प्राप्त कर गया है।

ਤਿਸ ਕੀ ਗਈ ਬਲਾਇ ਮਿਟੇ ਅੰਦੇਸਿਆ ॥
तिस की गई बलाइ मिटे अंदेसिआ ॥
उसकी विपदा दूर हो गई है तथा उसकी चिंता भी मिट गई है।

ਤਿਸ ਕਾ ਦਰਸਨੁ ਦੇਖਿ ਜਗਤੁ ਨਿਹਾਲੁ ਹੋਇ ॥
तिस का दरसनु देखि जगतु निहालु होइ ॥
उसके दर्शन करके जगत प्रसन्न हो जाता है।

ਜਨ ਕੈ ਸੰਗਿ ਨਿਹਾਲੁ ਪਾਪਾ ਮੈਲੁ ਧੋਇ ॥
जन कै संगि निहालु पापा मैलु धोइ ॥
प्रभु के सेवक की संगति में रहकर प्राणी आनंदित हो जाता है और उसके पापों की मैल साफ हो जाती है।

ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਸਾਚਾ ਨਾਉ ਓਥੈ ਜਾਪੀਐ ॥
अम्रितु साचा नाउ ओथै जापीऐ ॥
अमृत रूपी सत्य नाम का वहाँ जाप किया जाता है।

ਮਨ ਕਉ ਹੋਇ ਸੰਤੋਖੁ ਭੁਖਾ ਧ੍ਰਾਪੀਐ ॥
मन कउ होइ संतोखु भुखा ध्रापीऐ ॥
मन को संतोष प्राप्त होता है और भूख से मन तृप्त हो जाता है।

ਜਿਸੁ ਘਟਿ ਵਸਿਆ ਨਾਉ ਤਿਸੁ ਬੰਧਨ ਕਾਟੀਐ ॥
जिसु घटि वसिआ नाउ तिसु बंधन काटीऐ ॥
जिसके हृदय में नाम निवास करता है, उसके बन्धन कट जाते हैं।

ਗੁਰ ਪਰਸਾਦਿ ਕਿਨੈ ਵਿਰਲੈ ਹਰਿ ਧਨੁ ਖਾਟੀਐ ॥੫॥
गुर परसादि किनै विरलै हरि धनु खाटीऐ ॥५॥
गुरु की कृपा से कोई विरला व्यक्ति हरि धन का लाभ प्राप्त करता है ॥५॥

ਸਲੋਕ ਮਃ ੫ ॥
सलोक मः ५ ॥
श्लोक महला ५॥

ਮਨ ਮਹਿ ਚਿਤਵਉ ਚਿਤਵਨੀ ਉਦਮੁ ਕਰਉ ਉਠਿ ਨੀਤ ॥
मन महि चितवउ चितवनी उदमु करउ उठि नीत ॥
मैं अपने मन में सोचता रहता हूँ कि नित्य प्रभातकाल उठ कर हरि-कीर्तन का उद्यम करूँ।

ਹਰਿ ਕੀਰਤਨ ਕਾ ਆਹਰੋ ਹਰਿ ਦੇਹੁ ਨਾਨਕ ਕੇ ਮੀਤ ॥੧॥
हरि कीरतन का आहरो हरि देहु नानक के मीत ॥१॥
हे नानक के मित्र प्रभु ! मुझे हरि-कीर्तन करने का उद्यम प्रदान कीजिए॥ १॥

ਮਃ ੫ ॥
मः ५ ॥
महला ५॥

ਦ੍ਰਿਸਟਿ ਧਾਰਿ ਪ੍ਰਭਿ ਰਾਖਿਆ ਮਨੁ ਤਨੁ ਰਤਾ ਮੂਲਿ ॥
द्रिसटि धारि प्रभि राखिआ मनु तनु रता मूलि ॥
अपनी दया-दृष्टि धारण करके प्रभु ने मेरी रक्षा की है और मेरा मन एवं तन सत्य में लीन रहते हैं।

ਨਾਨਕ ਜੋ ਪ੍ਰਭ ਭਾਣੀਆ ਮਰਉ ਵਿਚਾਰੀ ਸੂਲਿ ॥੨॥
नानक जो प्रभ भाणीआ मरउ विचारी सूलि ॥२॥
हे नानक ! जो जीव-स्त्रियां अपने प्रभु को अच्छी लगती हैं, उनके हृदय की वेदना नाश हो जाती है।॥ २ ॥

ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी॥

ਜੀਅ ਕੀ ਬਿਰਥਾ ਹੋਇ ਸੁ ਗੁਰ ਪਹਿ ਅਰਦਾਸਿ ਕਰਿ ॥
जीअ की बिरथा होइ सु गुर पहि अरदासि करि ॥
अपने मन की पीड़ा संबंधी अपने गुरु के समक्ष प्रार्थना करो।

ਛੋਡਿ ਸਿਆਣਪ ਸਗਲ ਮਨੁ ਤਨੁ ਅਰਪਿ ਧਰਿ ॥
छोडि सिआणप सगल मनु तनु अरपि धरि ॥
अपनी समस्त चतुराइयाँ त्याग कर अपना मन-तन गुरु को अर्पित कर दो।

ਪੂਜਹੁ ਗੁਰ ਕੇ ਪੈਰ ਦੁਰਮਤਿ ਜਾਇ ਜਰਿ ॥
पूजहु गुर के पैर दुरमति जाइ जरि ॥
गुरु के चरणों की पूजा करो चूंकि तेरी दुर्मति नष्ट हो जाए।

ਸਾਧ ਜਨਾ ਕੈ ਸੰਗਿ ਭਵਜਲੁ ਬਿਖਮੁ ਤਰਿ ॥
साध जना कै संगि भवजलु बिखमु तरि ॥
संतजनों की संगति में रहकर विषम संसार-सागर से पार हो जाओ।

ਸੇਵਹੁ ਸਤਿਗੁਰ ਦੇਵ ਅਗੈ ਨ ਮਰਹੁ ਡਰਿ ॥
सेवहु सतिगुर देव अगै न मरहु डरि ॥
अपने देव रूप सच्चे गुरु की श्रद्धा से सेवा करो, तदुपरांत परलोक में भयभीत होकर नहीं मरोगे।

ਖਿਨ ਮਹਿ ਕਰੇ ਨਿਹਾਲੁ ਊਣੇ ਸੁਭਰ ਭਰਿ ॥
खिन महि करे निहालु ऊणे सुभर भरि ॥
गुरुदेव एक क्षण में ही तुझे प्रसन्न कर देंगे और तेरे शून्य मन को गुणों से भरपूर कर देंगे।

ਮਨ ਕਉ ਹੋਇ ਸੰਤੋਖੁ ਧਿਆਈਐ ਸਦਾ ਹਰਿ ॥
मन कउ होइ संतोखु धिआईऐ सदा हरि ॥
सदा हरि का ध्यान-मनन करने से मन को संतोष प्राप्त होता है।

ਸੋ ਲਗਾ ਸਤਿਗੁਰ ਸੇਵ ਜਾ ਕਉ ਕਰਮੁ ਧੁਰਿ ॥੬॥
सो लगा सतिगुर सेव जा कउ करमु धुरि ॥६॥
लेकिन सतिगुरु की सेवा में वही जुटता है, जिस पर प्रभु की मेहर हुई है ॥६॥

ਸਲੋਕ ਮਃ ੫ ॥
सलोक मः ५ ॥
श्लोक महला ५॥

ਲਗੜੀ ਸੁਥਾਨਿ ਜੋੜਣਹਾਰੈ ਜੋੜੀਆ ॥
लगड़ी सुथानि जोड़णहारै जोड़ीआ ॥
मेरा मन प्रेम पावन स्थान प्रभु-चरणों में लग गया है और मिलाप कराने वाले प्रभु ने स्वयं मिलाया है।

ਨਾਨਕ ਲਹਰੀ ਲਖ ਸੈ ਆਨ ਡੁਬਣ ਦੇਇ ਨ ਮਾ ਪਿਰੀ ॥੧॥
नानक लहरी लख सै आन डुबण देइ न मा पिरी ॥१॥
हे नानक ! इस संसार-सागर में लाखों लहरें उठ रही हैं परन्तु मेरा प्रियतम-प्रभु उन लहरों में मुझे डूबने नहीं देता ॥१॥

ਮਃ ੫ ॥
मः ५ ॥
महला ५॥

ਬਨਿ ਭੀਹਾਵਲੈ ਹਿਕੁ ਸਾਥੀ ਲਧਮੁ ਦੁਖ ਹਰਤਾ ਹਰਿ ਨਾਮਾ ॥
बनि भीहावलै हिकु साथी लधमु दुख हरता हरि नामा ॥
इस जगत रूपी भयानक वन में हरि-नाम रूपी साथी मिल गया है, जो दु:खों का नाशक है।

ਬਲਿ ਬਲਿ ਜਾਈ ਸੰਤ ਪਿਆਰੇ ਨਾਨਕ ਪੂਰਨ ਕਾਮਾਂ ॥੨॥
बलि बलि जाई संत पिआरे नानक पूरन कामां ॥२॥
हे नानक ! मैं प्यारे संतों पर बलिहारी जाता हूँ, जिन्होंने मेरे सभी कार्य सम्पूर्ण कर दिए हैं।॥ २ ॥

ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी॥

ਪਾਈਅਨਿ ਸਭਿ ਨਿਧਾਨ ਤੇਰੈ ਰੰਗਿ ਰਤਿਆ ॥
पाईअनि सभि निधान तेरै रंगि रतिआ ॥
हे प्रभु! तेरे प्रेम में रंग जाने से सभी भण्डार प्राप्त हो जाते हैं और

ਨ ਹੋਵੀ ਪਛੋਤਾਉ ਤੁਧ ਨੋ ਜਪਤਿਆ ॥
न होवी पछोताउ तुध नो जपतिआ ॥
तेरा सुमिरन करने से जीव को पश्ताचाप नहीं होता।

ਪਹੁਚਿ ਨ ਸਕੈ ਕੋਇ ਤੇਰੀ ਟੇਕ ਜਨ ॥
पहुचि न सकै कोइ तेरी टेक जन ॥
कोई भी उसकी समानता नहीं कर सकता, तेरे सेवक को तेरा ही सहारा है

ਗੁਰ ਪੂਰੇ ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਸੁਖ ਲਹਾ ਚਿਤਾਰਿ ਮਨ ॥
गुर पूरे वाहु वाहु सुख लहा चितारि मन ॥
पूर्ण गुरुदेव को वाह ! वाह! कहता हूँ और अपने मन में उनको याद करके मैं सुख प्राप्त करता हूँ।

ਗੁਰ ਪਹਿ ਸਿਫਤਿ ਭੰਡਾਰੁ ਕਰਮੀ ਪਾਈਐ ॥
गुर पहि सिफति भंडारु करमी पाईऐ ॥
गुरुदेव के पास प्रभु की महिमा का भण्डार है जो तकदीर से ही पाया जाता है।

ਸਤਿਗੁਰ ਨਦਰਿ ਨਿਹਾਲ ਬਹੁੜਿ ਨ ਧਾਈਐ ॥
सतिगुर नदरि निहाल बहुड़ि न धाईऐ ॥
यदि सतिगुरु कृपा-दृष्टि कर दें तो प्राणी दोबारा नहीं भटकता।

ਰਖੈ ਆਪਿ ਦਇਆਲੁ ਕਰਿ ਦਾਸਾ ਆਪਣੇ ॥
रखै आपि दइआलु करि दासा आपणे ॥
दया का सागर प्रभु प्राणी को अपना दास बनाकर स्वयं उसकी रक्षा करता है।

ਹਰਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਜੀਵਾ ਸੁਣਿ ਸੁਣੇ ॥੭॥
हरि हरि हरि हरि नामु जीवा सुणि सुणे ॥७॥
मैं परमात्मा का ‘हरि-हरि’ नाम सुन-सुन कर जीवित हूँ। ॥७॥

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