ਸੋ ਸਤਿਗੁਰੁ ਤਿਨ ਕਉ ਭੇਟਿਆ ਜਿਨ ਕੈ ਮੁਖਿ ਮਸਤਕਿ ਭਾਗੁ ਲਿਖਿ ਪਾਇਆ ॥੭॥
सो सतिगुरु तिन कउ भेटिआ जिन कै मुखि मसतकि भागु लिखि पाइआ ॥७॥
ऐसे सतगुरु से उन लोगों की ही भेंट होती है, जिनके मुख-मस्तक पर परमात्मा ने भाग्य लिखा होता है ॥७॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक महला ३॥
ਭਗਤਿ ਕਰਹਿ ਮਰਜੀਵੜੇ ਗੁਰਮੁਖਿ ਭਗਤਿ ਸਦਾ ਹੋਇ ॥
भगति करहि मरजीवड़े गुरमुखि भगति सदा होइ ॥
मरजीवे ही भगवान की भक्ति करते हैं और गुरु द्वारा भक्ति की जा सकती है।
ਓਨਾ ਕਉ ਧੁਰਿ ਭਗਤਿ ਖਜਾਨਾ ਬਖਸਿਆ ਮੇਟਿ ਨ ਸਕੈ ਕੋਇ ॥
ओना कउ धुरि भगति खजाना बखसिआ मेटि न सकै कोइ ॥
भक्ति का भण्डार उन्हें प्रारम्भ से ही दिया हुआ है, जिसे कोई भी मिटा नहीं सकता।
ਗੁਣ ਨਿਧਾਨੁ ਮਨਿ ਪਾਇਆ ਏਕੋ ਸਚਾ ਸੋਇ ॥
गुण निधानु मनि पाइआ एको सचा सोइ ॥
ऐसे महापुरुष अपने मन में ही गुणों के भण्डार एक परम-सत्य को प्राप्त कर लेते हैं।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਮਿਲਿ ਰਹੇ ਫਿਰਿ ਵਿਛੋੜਾ ਕਦੇ ਨ ਹੋਇ ॥੧॥
नानक गुरमुखि मिलि रहे फिरि विछोड़ा कदे न होइ ॥१॥
नानक का कथन है कि गुरुमुख व्यक्ति सदैव ही भगवान में मिले रहते हैं और वे फिर कभी जुदा नहीं होते॥ १॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥
ਸਤਿਗੁਰ ਕੀ ਸੇਵ ਨ ਕੀਨੀਆ ਕਿਆ ਓਹੁ ਕਰੇ ਵੀਚਾਰੁ ॥
सतिगुर की सेव न कीनीआ किआ ओहु करे वीचारु ॥
जो व्यक्ति सतिगुरु की सेवा नहीं करता, वह कैसे चिंतन कर सकता है।
ਸਬਦੈ ਸਾਰ ਨ ਜਾਣਈ ਬਿਖੁ ਭੂਲਾ ਗਾਵਾਰੁ ॥
सबदै सार न जाणई बिखु भूला गावारु ॥
मूर्ख व्यक्ति विकारों में भटकता रहता है और शब्द के सार को नहीं जानता।
ਅਗਿਆਨੀ ਅੰਧੁ ਬਹੁ ਕਰਮ ਕਮਾਵੈ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਪਿਆਰੁ ॥
अगिआनी अंधु बहु करम कमावै दूजै भाइ पिआरु ॥
अज्ञानी एवं अन्धा मनुष्य बहुत सारे कर्म करता है और द्वैतभाव से प्रेम करता है।
ਅਣਹੋਦਾ ਆਪੁ ਗਣਾਇਦੇ ਜਮੁ ਮਾਰਿ ਕਰੇ ਤਿਨ ਖੁਆਰੁ ॥
अणहोदा आपु गणाइदे जमु मारि करे तिन खुआरु ॥
जो व्यक्ति गुणहीन होते हुए भी खुद को बड़ा कहलाते हैं, उन्हें मृत्यु दूत मार-मार कर बड़ा तंग करता है।
ਨਾਨਕ ਕਿਸ ਨੋ ਆਖੀਐ ਜਾ ਆਪੇ ਬਖਸਣਹਾਰੁ ॥੨॥
नानक किस नो आखीऐ जा आपे बखसणहारु ॥२॥
नानक का कथन है कि अन्य किस को बताया जाए, जबकि भगवान स्वयं ही क्षमाशील है॥ २॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी॥
ਤੂ ਕਰਤਾ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਜਾਣਦਾ ਸਭਿ ਜੀਅ ਤੁਮਾਰੇ ॥
तू करता सभु किछु जाणदा सभि जीअ तुमारे ॥
हे सृष्टिकर्ता ! तू सब कुछ जानता है एवं ये सारे जीव तेरे अपने ही हैं।
ਜਿਸੁ ਤੂ ਭਾਵੈ ਤਿਸੁ ਤੂ ਮੇਲਿ ਲੈਹਿ ਕਿਆ ਜੰਤ ਵਿਚਾਰੇ ॥
जिसु तू भावै तिसु तू मेलि लैहि किआ जंत विचारे ॥
जिसे तू पसन्द करता है, उसे अपने साथ मिला लेता है। लेकिन ये जीव बेचारे क्या कर सकते हैं।
ਤੂ ਕਰਣ ਕਾਰਣ ਸਮਰਥੁ ਹੈ ਸਚੁ ਸਿਰਜਣਹਾਰੇ ॥
तू करण कारण समरथु है सचु सिरजणहारे ॥
हे सच्चे सृजनहार ! तू समस्त कार्य करने एवं करवाने में समर्थ है।
ਜਿਸੁ ਤੂ ਮੇਲਹਿ ਪਿਆਰਿਆ ਸੋ ਤੁਧੁ ਮਿਲੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਵੀਚਾਰੇ ॥
जिसु तू मेलहि पिआरिआ सो तुधु मिलै गुरमुखि वीचारे ॥
हे प्रियतम ! जिसे तू स्वयं अपने साथ मिलाता है, वही गुरुमुख बनकर तेरा चिन्तन करके तुझ में विलीन हो जाता है।
ਹਉ ਬਲਿਹਾਰੀ ਸਤਿਗੁਰ ਆਪਣੇ ਜਿਨਿ ਮੇਰਾ ਹਰਿ ਅਲਖੁ ਲਖਾਰੇ ॥੮॥
हउ बलिहारी सतिगुर आपणे जिनि मेरा हरि अलखु लखारे ॥८॥
मैं अपने सच्चे गुरु पर शत्-शत् कुर्बान हूँ, जिसने मेरे अदृश्य भगवान के दर्शन करा दिए हैं ॥८॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥
सलोक मः ३ ॥
श्लोक महला ३ ॥
ਰਤਨਾ ਪਾਰਖੁ ਜੋ ਹੋਵੈ ਸੁ ਰਤਨਾ ਕਰੇ ਵੀਚਾਰੁ ॥
रतना पारखु जो होवै सु रतना करे वीचारु ॥
जो रत्नों की परख करने वाला पारखी है, वही रत्नों पर विचार करता है।
ਰਤਨਾ ਸਾਰ ਨ ਜਾਣਈ ਅਗਿਆਨੀ ਅੰਧੁ ਅੰਧਾਰੁ ॥
रतना सार न जाणई अगिआनी अंधु अंधारु ॥
किन्तु अज्ञानी एवं परम अन्धा व्यक्ति रत्नों की कद्र को नहीं जानता।
ਰਤਨੁ ਗੁਰੂ ਕਾ ਸਬਦੁ ਹੈ ਬੂਝੈ ਬੂਝਣਹਾਰੁ ॥
रतनु गुरू का सबदु है बूझै बूझणहारु ॥
कोई मेधावी इन्सान ही यह बात समझता है कि गुरु का शब्द ही रत्न है।
ਮੂਰਖ ਆਪੁ ਗਣਾਇਦੇ ਮਰਿ ਜੰਮਹਿ ਹੋਇ ਖੁਆਰੁ ॥
मूरख आपु गणाइदे मरि जमहि होइ खुआरु ॥
मूर्ख मनुष्य स्वयं पर बड़ा गर्व करते हैं परन्तु ऐसे मनुष्य जन्म-मरण के चक्र में पड़कर दुखी होते रहते हैं।
ਨਾਨਕ ਰਤਨਾ ਸੋ ਲਹੈ ਜਿਸੁ ਗੁਰਮੁਖਿ ਲਗੈ ਪਿਆਰੁ ॥
नानक रतना सो लहै जिसु गुरमुखि लगै पिआरु ॥
नानक का कथन है कि नाम-रत्नों की प्राप्ति उस व्यक्ति को ही होती है, जिसे गुरुमुख बनकर नाम से प्यार होता है।
ਸਦਾ ਸਦਾ ਨਾਮੁ ਉਚਰੈ ਹਰਿ ਨਾਮੋ ਨਿਤ ਬਿਉਹਾਰੁ ॥
सदा सदा नामु उचरै हरि नामो नित बिउहारु ॥
ऐसा व्यक्ति दिन-रात हरि-नाम का ही उच्चारण करता है और हरि का नाम ही उसका प्रतिदिन का व्यवहार बन जाता है।
ਕ੍ਰਿਪਾ ਕਰੇ ਜੇ ਆਪਣੀ ਤਾ ਹਰਿ ਰਖਾ ਉਰ ਧਾਰਿ ॥੧॥
क्रिपा करे जे आपणी ता हरि रखा उर धारि ॥१॥
यदि परमेश्वर अपनी कृपा करे तो मैं उसे अपने हृदय में बसा कर रख सकता हूँ ॥१॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥
ਸਤਿਗੁਰ ਕੀ ਸੇਵ ਨ ਕੀਨੀਆ ਹਰਿ ਨਾਮਿ ਨ ਲਗੋ ਪਿਆਰੁ ॥
सतिगुर की सेव न कीनीआ हरि नामि न लगो पिआरु ॥
जो व्यक्ति गुरु की सेवा नहीं करते एवं हरि के नाम से प्रेम नहीं लगाते,
ਮਤ ਤੁਮ ਜਾਣਹੁ ਓਇ ਜੀਵਦੇ ਓਇ ਆਪਿ ਮਾਰੇ ਕਰਤਾਰਿ ॥
मत तुम जाणहु ओइ जीवदे ओइ आपि मारे करतारि ॥
उन्हें तुम जीवित मत समझो, क्योंकि उन्हें कर्ता प्रभु ने स्वयं ही समाप्त कर दिया है।
ਹਉਮੈ ਵਡਾ ਰੋਗੁ ਹੈ ਭਾਇ ਦੂਜੈ ਕਰਮ ਕਮਾਇ ॥
हउमै वडा रोगु है भाइ दूजै करम कमाइ ॥
अहंकार एक बड़ा भयानक रोग है, यह रोग मनुष्य से द्वैतभाव के कर्म करवाता रहता है।
ਨਾਨਕ ਮਨਮੁਖਿ ਜੀਵਦਿਆ ਮੁਏ ਹਰਿ ਵਿਸਰਿਆ ਦੁਖੁ ਪਾਇ ॥੨॥
नानक मनमुखि जीवदिआ मुए हरि विसरिआ दुखु पाइ ॥२॥
नानक का कथन है कि मनमुख मनुष्य जीवित रहते हुए भी लाश के बराबर हैं और प्रभु को भुलाकर वे बहुत दु:खी होते हैं ॥२॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी ॥
ਜਿਸੁ ਅੰਤਰੁ ਹਿਰਦਾ ਸੁਧੁ ਹੈ ਤਿਸੁ ਜਨ ਕਉ ਸਭਿ ਨਮਸਕਾਰੀ ॥
जिसु अंतरु हिरदा सुधु है तिसु जन कउ सभि नमसकारी ॥
जिसका हृदय भीतर से शुद्ध है, उस व्यक्ति को सभी नमस्कार करते हैं।
ਜਿਸੁ ਅੰਦਰਿ ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ਹੈ ਤਿਸੁ ਜਨ ਕਉ ਹਉ ਬਲਿਹਾਰੀ ॥
जिसु अंदरि नामु निधानु है तिसु जन कउ हउ बलिहारी ॥
जिस के हृदय में नाम का भण्डार विद्यमान है, उस व्यक्ति पर मैं बलिहारी जाता हूँ।
ਜਿਸੁ ਅੰਦਰਿ ਬੁਧਿ ਬਿਬੇਕੁ ਹੈ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਮੁਰਾਰੀ ॥
जिसु अंदरि बुधि बिबेकु है हरि नामु मुरारी ॥
जिसके अन्दर विवेक-बुद्धि है तथा मुरारि हरि का नाम विद्यमान रहता है,
ਸੋ ਸਤਿਗੁਰੁ ਸਭਨਾ ਕਾ ਮਿਤੁ ਹੈ ਸਭ ਤਿਸਹਿ ਪਿਆਰੀ ॥
सो सतिगुरु सभना का मितु है सभ तिसहि पिआरी ॥
वह सतिगुरु सभी का मित्र है तथा सारी दुनिया से उसका प्रेम है।
ਸਭੁ ਆਤਮ ਰਾਮੁ ਪਸਾਰਿਆ ਗੁਰ ਬੁਧਿ ਬੀਚਾਰੀ ॥੯॥
सभु आतम रामु पसारिआ गुर बुधि बीचारी ॥९॥
मैंने गुरु की दी हुई बुद्धि से यह विचार किया है कि सब आत्माओं में समाए हुए राम का ही यह प्रसार है ॥६॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥
सलोक मः ३ ॥
श्लोक महला ३॥
ਬਿਨੁ ਸਤਿਗੁਰ ਸੇਵੇ ਜੀਅ ਕੇ ਬੰਧਨਾ ਵਿਚਿ ਹਉਮੈ ਕਰਮ ਕਮਾਹਿ ॥
बिनु सतिगुर सेवे जीअ के बंधना विचि हउमै करम कमाहि ॥
सतिगुरु की सेवा के बिना वह कर्म जीव के लिए बन्धन बन जाते हैं जो कर्म वह अहंकार में ही करता रहता है।
ਬਿਨੁ ਸਤਿਗੁਰ ਸੇਵੇ ਠਉਰ ਨ ਪਾਵਹੀ ਮਰਿ ਜੰਮਹਿ ਆਵਹਿ ਜਾਹਿ ॥
बिनु सतिगुर सेवे ठउर न पावही मरि जमहि आवहि जाहि ॥
गुरु की सेवा के बिना जीव को सुख का स्थान नहीं मिलता और वह जन्मता-मरता और दुनिया में आता-जाता ही रहता है।
ਬਿਨੁ ਸਤਿਗੁਰ ਸੇਵੇ ਫਿਕਾ ਬੋਲਣਾ ਨਾਮੁ ਨ ਵਸੈ ਮਨ ਮਾਹਿ ॥
बिनु सतिगुर सेवे फिका बोलणा नामु न वसै मन माहि ॥
सतिगुरु की सेवा के बिना मनुष्य कटु वचन ही बोलता रहता है और उसके मन में भगवान का नाम नहीं बसता।