ਨਾਨਕ ਬਿਨੁ ਸਤਿਗੁਰ ਸੇਵੇ ਜਮ ਪੁਰਿ ਬਧੇ ਮਾਰੀਅਨਿ ਮੁਹਿ ਕਾਲੈ ਉਠਿ ਜਾਹਿ ॥੧॥
नानक बिनु सतिगुर सेवे जम पुरि बधे मारीअनि मुहि कालै उठि जाहि ॥१॥
हे नानक ! सतिगुरु की सेवा के बिना जीव दुनिया से मुँह काला करवा कर चला जाता है और यमपुरी में जकड़कर दण्ड भोगता है॥ १॥
ਮਹਲਾ ੧ ॥
महला १ ॥
महला १॥
ਜਾਲਉ ਐਸੀ ਰੀਤਿ ਜਿਤੁ ਮੈ ਪਿਆਰਾ ਵੀਸਰੈ ॥
जालउ ऐसी रीति जितु मै पिआरा वीसरै ॥
मैं ऐसी रीति को जला दूँगा, जिसके फलस्वरूप मुझे मेरा प्यारा प्रभु भूल जाता है।
ਨਾਨਕ ਸਾਈ ਭਲੀ ਪਰੀਤਿ ਜਿਤੁ ਸਾਹਿਬ ਸੇਤੀ ਪਤਿ ਰਹੈ ॥੨॥
नानक साई भली परीति जितु साहिब सेती पति रहै ॥२॥
हे नानक ! वह प्यार ही भला है, जो प्रभु से प्रतिष्ठा कायम रखता है॥ २॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी।
ਹਰਿ ਇਕੋ ਦਾਤਾ ਸੇਵੀਐ ਹਰਿ ਇਕੁ ਧਿਆਈਐ ॥
हरि इको दाता सेवीऐ हरि इकु धिआईऐ ॥
एक दाता परमेश्वर की ही भक्ति करनी चाहिए और एक ईश्वर का ही ध्यान करना चाहिए।
ਹਰਿ ਇਕੋ ਦਾਤਾ ਮੰਗੀਐ ਮਨ ਚਿੰਦਿਆ ਪਾਈਐ ॥
हरि इको दाता मंगीऐ मन चिंदिआ पाईऐ ॥
एक दाता परमेश्वर से ही माँगना चाहिए, क्योंकि उससे ही मनोवांछित फल प्राप्त होते हैं।
ਜੇ ਦੂਜੇ ਪਾਸਹੁ ਮੰਗੀਐ ਤਾ ਲਾਜ ਮਰਾਈਐ ॥
जे दूजे पासहु मंगीऐ ता लाज मराईऐ ॥
यदि हम भगवान के अलावा किसी दूसरे से मांगते हैं तो लज्जित होकर मरेंगे।
ਜਿਨਿ ਸੇਵਿਆ ਤਿਨਿ ਫਲੁ ਪਾਇਆ ਤਿਸੁ ਜਨ ਕੀ ਸਭ ਭੁਖ ਗਵਾਈਐ ॥
जिनि सेविआ तिनि फलु पाइआ तिसु जन की सभ भुख गवाईऐ ॥
जिसने उपासना की है, उसे फल प्राप्त हो गया है और उस व्यक्ति की सारी भूख दूर हो गई है।
ਨਾਨਕੁ ਤਿਨ ਵਿਟਹੁ ਵਾਰਿਆ ਜਿਨ ਅਨਦਿਨੁ ਹਿਰਦੈ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਈਐ ॥੧੦॥
नानकु तिन विटहु वारिआ जिन अनदिनु हिरदै हरि नामु धिआईऐ ॥१०॥
नानक उन लोगों पर न्योछावर है, जो अपने हृदय में रात-दिन हरि-नाम का ध्यान करते हैं ॥१०॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक महला ३॥
ਭਗਤ ਜਨਾ ਕੰਉ ਆਪਿ ਤੁਠਾ ਮੇਰਾ ਪਿਆਰਾ ਆਪੇ ਲਇਅਨੁ ਜਨ ਲਾਇ ॥
भगत जना कंउ आपि तुठा मेरा पिआरा आपे लइअनु जन लाइ ॥
मेरा प्यारा परमेश्वर भक्तजनों पर स्वयं प्रसन्न हुआ है और अपने भक्तों को उसने स्वयं ही भक्ति में लगा लिया है।
ਪਾਤਿਸਾਹੀ ਭਗਤ ਜਨਾ ਕਉ ਦਿਤੀਅਨੁ ਸਿਰਿ ਛਤੁ ਸਚਾ ਹਰਿ ਬਣਾਇ ॥
पातिसाही भगत जना कउ दितीअनु सिरि छतु सचा हरि बणाइ ॥
अपने भक्तजनों का उसने साम्राज्य प्रदान किया है और उनके सिर हेतु उसने सच्चा मुकुट बनाया है।
ਸਦਾ ਸੁਖੀਏ ਨਿਰਮਲੇ ਸਤਿਗੁਰ ਕੀ ਕਾਰ ਕਮਾਇ ॥
सदा सुखीए निरमले सतिगुर की कार कमाइ ॥
वे सर्वदा सुखी एवं निर्मल हैं और सतिगुरु की सेवा करते हैं।
ਰਾਜੇ ਓਇ ਨ ਆਖੀਅਹਿ ਭਿੜਿ ਮਰਹਿ ਫਿਰਿ ਜੂਨੀ ਪਾਹਿ ॥
राजे ओइ न आखीअहि भिड़ि मरहि फिरि जूनी पाहि ॥
वे राजा नहीं कहे जा सकते, जो आपस में भिड़कर मर जाते हैं और तत्पश्चात् पुनः योनियों के चक्र में ही पड़े रहते हैं।
ਨਾਨਕ ਵਿਣੁ ਨਾਵੈ ਨਕੀਂ ਵਢੀਂ ਫਿਰਹਿ ਸੋਭਾ ਮੂਲਿ ਨ ਪਾਹਿ ॥੧॥
नानक विणु नावै नकीं वढीं फिरहि सोभा मूलि न पाहि ॥१॥
हे नानक ! भगवान के नाम के बिना वे नकटा अर्थात् तिरस्कृत होकर घूमते रहते हैं तथा बिल्कुल ही शोभा प्राप्त नहीं करते॥ १॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥
ਸੁਣਿ ਸਿਖਿਐ ਸਾਦੁ ਨ ਆਇਓ ਜਿਚਰੁ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਬਦਿ ਨ ਲਾਗੈ ॥
सुणि सिखिऐ सादु न आइओ जिचरु गुरमुखि सबदि न लागै ॥
“(शब्द को) सुनने एवं निर्देश देने से मनुष्य को इसका स्वाद नहीं आता, जब तक वह गुरुमुख बनकर शब्द में मग्न नहीं होता।
ਸਤਿਗੁਰਿ ਸੇਵਿਐ ਨਾਮੁ ਮਨਿ ਵਸੈ ਵਿਚਹੁ ਭ੍ਰਮੁ ਭਉ ਭਾਗੈ ॥
सतिगुरि सेविऐ नामु मनि वसै विचहु भ्रमु भउ भागै ॥
गुरु की सेवा करने से भगवान का नाम जीव के मन में निवास कर लेता है और भ्रम एवं खौफ उसके भीतर से भाग जाते हैं।
ਜੇਹਾ ਸਤਿਗੁਰ ਨੋ ਜਾਣੈ ਤੇਹੋ ਹੋਵੈ ਤਾ ਸਚਿ ਨਾਮਿ ਲਿਵ ਲਾਗੈ ॥
जेहा सतिगुर नो जाणै तेहो होवै ता सचि नामि लिव लागै ॥
जीवं जैसा गुरु को जानता है, वह भी वैसे ही हो जाता है और तब उसकी सुरति सत्य-नाम से लग जाती है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਮਿਲੈ ਵਡਿਆਈ ਹਰਿ ਦਰਿ ਸੋਹਨਿ ਆਗੈ ॥੨॥
नानक नामि मिलै वडिआई हरि दरि सोहनि आगै ॥२॥
हे नानक ! नाम के फलस्वरूप ही जीव को कीर्ति प्राप्त होती है और आगे भगवान के दरबार में भी शोभायमान होता है ॥ २ ॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी॥
ਗੁਰਸਿਖਾਂ ਮਨਿ ਹਰਿ ਪ੍ਰੀਤਿ ਹੈ ਗੁਰੁ ਪੂਜਣ ਆਵਹਿ ॥
गुरसिखां मनि हरि प्रीति है गुरु पूजण आवहि ॥
गुरु के शिष्यों के मन में भगवान की प्रीति है और वे आकर गुरु की पूजा करते हैं।
ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਵਣੰਜਹਿ ਰੰਗ ਸਿਉ ਲਾਹਾ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਲੈ ਜਾਵਹਿ ॥
हरि नामु वणंजहि रंग सिउ लाहा हरि नामु लै जावहि ॥
वे हरि-नाम का बड़े प्रेम से व्यापार करते हैं और हरि-नाम का लाभ अर्जित करके चले जाते हैं।
ਗੁਰਸਿਖਾ ਕੇ ਮੁਖ ਉਜਲੇ ਹਰਿ ਦਰਗਹ ਭਾਵਹਿ ॥
गुरसिखा के मुख उजले हरि दरगह भावहि ॥
गुरु के शिष्यों के मुख हमेशा उज्ज्वल हैं और वे भगवान के दरबार में सत्कृत होते हैं।
ਗੁਰੁ ਸਤਿਗੁਰੁ ਬੋਹਲੁ ਹਰਿ ਨਾਮ ਕਾ ਵਡਭਾਗੀ ਸਿਖ ਗੁਣ ਸਾਂਝ ਕਰਾਵਹਿ ॥
गुरु सतिगुरु बोहलु हरि नाम का वडभागी सिख गुण सांझ करावहि ॥
गुरु-सतगुरु भगवान के नाम का अमूल्य भण्डार है और भाग्यशाली गुरु के शिष्य इस गुणों के भण्डार में उनके भागीदार बन जाते हैं।
ਤਿਨਾ ਗੁਰਸਿਖਾ ਕੰਉ ਹਉ ਵਾਰਿਆ ਜੋ ਬਹਦਿਆ ਉਠਦਿਆ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਵਹਿ ॥੧੧॥
तिना गुरसिखा कंउ हउ वारिआ जो बहदिआ उठदिआ हरि नामु धिआवहि ॥११॥
मैं गुरु के उन शिष्यों पर न्यौछावर हूँ, जो बैठते-उठते समय सदा हरि-नाम का ध्यान करते रहते हैं।॥११॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥
सलोक मः ३ ॥
श्लोक महला ३॥
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ਹੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਾਇਆ ਜਾਇ ॥
नानक नामु निधानु है गुरमुखि पाइआ जाइ ॥
हे नानक ! भगवान का नाम एक अमूल्य भण्डार है, जिसकी उपलब्धि गुरु के माध्यम से ही होती है।
ਮਨਮੁਖ ਘਰਿ ਹੋਦੀ ਵਥੁ ਨ ਜਾਣਨੀ ਅੰਧੇ ਭਉਕਿ ਮੁਏ ਬਿਲਲਾਇ ॥੧॥
मनमुख घरि होदी वथु न जाणनी अंधे भउकि मुए बिललाइ ॥१॥
स्वेच्छाचारी जीव अपने हृदय रूपी घर में मौजूद इस अनमोल वस्तु को नहीं जानते और ज्ञान से अन्धे भौंकते एवं रोते-चिल्लाते ही जीवन छोड़ देते हैं।॥ १॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥
ਕੰਚਨ ਕਾਇਆ ਨਿਰਮਲੀ ਜੋ ਸਚਿ ਨਾਮਿ ਸਚਿ ਲਾਗੀ ॥
कंचन काइआ निरमली जो सचि नामि सचि लागी ॥
वह काया स्वर्ण की भाँति निर्मल है, जो सत्यस्वरूप परमात्मा के सत्य-नाम में मग्न हो गई है।
ਨਿਰਮਲ ਜੋਤਿ ਨਿਰੰਜਨੁ ਪਾਇਆ ਗੁਰਮੁਖਿ ਭ੍ਰਮੁ ਭਉ ਭਾਗੀ ॥
निरमल जोति निरंजनु पाइआ गुरमुखि भ्रमु भउ भागी ॥
गुरुमुख बनने से इस काया को निर्मल ज्योति वाले निरंजन प्रभु की प्राप्ति हो जाती है और इसका भ्रम एवं डर दूर हो जाते हैं।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਪਾਵਹਿ ਅਨਦਿਨੁ ਹਰਿ ਬੈਰਾਗੀ ॥੨॥
नानक गुरमुखि सदा सुखु पावहि अनदिनु हरि बैरागी ॥२॥
हे नानक ! गुरुमुख व्यक्ति हमेशा सुखी रहते हैं और रात-दिन भगवान के प्रेम में बैरागी बने रहते हैं।॥२॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी॥
ਸੇ ਗੁਰਸਿਖ ਧਨੁ ਧੰਨੁ ਹੈ ਜਿਨੀ ਗੁਰ ਉਪਦੇਸੁ ਸੁਣਿਆ ਹਰਿ ਕੰਨੀ ॥
से गुरसिख धनु धंनु है जिनी गुर उपदेसु सुणिआ हरि कंनी ॥
वे गुरु के शिष्य बड़े धन्य-धन्य हैं, जिन्होंने अपने कानों से ध्यानपूर्वक गुरु का उपदेश सुना है।
ਗੁਰਿ ਸਤਿਗੁਰਿ ਨਾਮੁ ਦ੍ਰਿੜਾਇਆ ਤਿਨਿ ਹੰਉਮੈ ਦੁਬਿਧਾ ਭੰਨੀ ॥
गुरि सतिगुरि नामु द्रिड़ाइआ तिनि हंउमै दुबिधा भंनी ॥
गुरु-सतगुरु ने उनके अन्तर में भगवान के नाम को दृढ़ किया है और उनकी दुविधा एवं अहंकार का नाश कर दिया है।
ਬਿਨੁ ਹਰਿ ਨਾਵੈ ਕੋ ਮਿਤ੍ਰੁ ਨਾਹੀ ਵੀਚਾਰਿ ਡਿਠਾ ਹਰਿ ਜੰਨੀ ॥
बिनु हरि नावै को मित्रु नाही वीचारि डिठा हरि जंनी ॥
भक्तों ने विचार करके यह देख लिया है कि हरि-नाम के सिवाय दूसरा कोई मित्र नहीं।