ਰੇਨੁ ਸੰਤਨ ਕੀ ਮੇਰੈ ਮੁਖਿ ਲਾਗੀ ॥
रेनु संतन की मेरै मुखि लागी ॥
जब संतों के चरणों की धूल मेरे माथे में लगी,”
ਦੁਰਮਤਿ ਬਿਨਸੀ ਕੁਬੁਧਿ ਅਭਾਗੀ ॥
दुरमति बिनसी कुबुधि अभागी ॥
तब मेरी खोटी बुद्धि और कुबुद्धि लुप्त हो गई।
ਸਚ ਘਰਿ ਬੈਸਿ ਰਹੇ ਗੁਣ ਗਾਏ ਨਾਨਕ ਬਿਨਸੇ ਕੂਰਾ ਜੀਉ ॥੪॥੧੧॥੧੮॥
सच घरि बैसि रहे गुण गाए नानक बिनसे कूरा जीउ ॥४॥११॥१८॥
हे नानक ! अब मैं सत्य घर में बसता हूँ और परमात्मा का यशोगान ही करता हूँ। मेरे अन्तर्मन से मेरा झूठ भी नाश हो गया है ॥४॥११॥१८॥
ਮਾਝ ਮਹਲਾ ੫ ॥
माझ महला ५ ॥
माझ महला ५ ॥
ਵਿਸਰੁ ਨਾਹੀ ਏਵਡ ਦਾਤੇ ॥
विसरु नाही एवड दाते ॥
हे इतने महान दानशील प्रभु ! मैं तुझे कदापि विस्मृत न करूँ।
ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਭਗਤਨ ਸੰਗਿ ਰਾਤੇ ॥
करि किरपा भगतन संगि राते ॥
इसलिए मुझ पर ऐसी कृपा करो कि मेरा मन तेरे भक्तों के प्रेम में मग्न रहे।
ਦਿਨਸੁ ਰੈਣਿ ਜਿਉ ਤੁਧੁ ਧਿਆਈ ਏਹੁ ਦਾਨੁ ਮੋਹਿ ਕਰਣਾ ਜੀਉ ॥੧॥
दिनसु रैणि जिउ तुधु धिआई एहु दानु मोहि करणा जीउ ॥१॥
हे प्रभु! जिस तरह तुझे अच्छा लगे, मुझे यह दान दीजिए कि दिन-रात मैं तेरा ही सिमरन करता रहूँ॥१॥
ਮਾਟੀ ਅੰਧੀ ਸੁਰਤਿ ਸਮਾਈ ॥
माटी अंधी सुरति समाई ॥
जीवों के शरीर ज्ञानहीन मिट्टी के बने हुए हैं और इन शरीरों में चेतन सुरति समाई हुई है।
ਸਭ ਕਿਛੁ ਦੀਆ ਭਲੀਆ ਜਾਈ ॥
सभ किछु दीआ भलीआ जाई ॥
हे प्रभु ! तू जीवों को सबकुछ देता है। तू जीवों को रहने के लिए अच्छे स्थान देता है
ਅਨਦ ਬਿਨੋਦ ਚੋਜ ਤਮਾਸੇ ਤੁਧੁ ਭਾਵੈ ਸੋ ਹੋਣਾ ਜੀਉ ॥੨॥
अनद बिनोद चोज तमासे तुधु भावै सो होणा जीउ ॥२॥
और ये जीव विभिन्न प्रकार के विलास, विनोद, आश्चर्यमयी कौतुक एवं मनोरंजन प्राप्त करते हैं। जो कुछ तुझे भाता है, वही होता है॥२॥
ਜਿਸ ਦਾ ਦਿਤਾ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਲੈਣਾ ॥
जिस दा दिता सभु किछु लैणा ॥
(उस परमात्मा को स्मरण करो) जिस भगवान का दिया हुआ हम सब कुछ ले रहे हैं
ਛਤੀਹ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਭੋਜਨੁ ਖਾਣਾ ॥
छतीह अम्रित भोजनु खाणा ॥
और छत्तीस प्रकार के भोजन खा रहे हैं।
ਸੇਜ ਸੁਖਾਲੀ ਸੀਤਲੁ ਪਵਣਾ ਸਹਜ ਕੇਲ ਰੰਗ ਕਰਣਾ ਜੀਉ ॥੩॥
सेज सुखाली सीतलु पवणा सहज केल रंग करणा जीउ ॥३॥
हमें सुखदायक सेज सोने के लिए मिल रही है, हम शीतल पवन का आनंद लेते हैं तथा विलासपूर्ण क्रीड़ाएँ करते हैं।॥३॥
ਸਾ ਬੁਧਿ ਦੀਜੈ ਜਿਤੁ ਵਿਸਰਹਿ ਨਾਹੀ ॥
सा बुधि दीजै जितु विसरहि नाही ॥
हे प्रियतम प्रभु ! मुझे वह बुद्धि दीजिए, जो तुझे विस्मृत न करे।
ਸਾ ਮਤਿ ਦੀਜੈ ਜਿਤੁ ਤੁਧੁ ਧਿਆਈ ॥
सा मति दीजै जितु तुधु धिआई ॥
मुझे ऐसी मति प्रदान करो जिससे मैं तेरा ही ध्यान करता रहूँ।
ਸਾਸ ਸਾਸ ਤੇਰੇ ਗੁਣ ਗਾਵਾ ਓਟ ਨਾਨਕ ਗੁਰ ਚਰਣਾ ਜੀਉ ॥੪॥੧੨॥੧੯॥
सास सास तेरे गुण गावा ओट नानक गुर चरणा जीउ ॥४॥१२॥१९॥
हे प्रभु ! अपने प्रत्येक श्वास से मैं तेरा यशोगान करता हूँ। नानक ने गुरु के चरणों की शरण ली है ॥४॥१२॥१९॥
ਮਾਝ ਮਹਲਾ ੫ ॥
माझ महला ५ ॥
माझ महला ५ ॥
ਸਿਫਤਿ ਸਾਲਾਹਣੁ ਤੇਰਾ ਹੁਕਮੁ ਰਜਾਈ ॥
सिफति सालाहणु तेरा हुकमु रजाई ॥
हे प्रभु ! तेरी महिमा-स्तुति करना ही तेरे हुकम एवं इच्छा को मानना है।
ਸੋ ਗਿਆਨੁ ਧਿਆਨੁ ਜੋ ਤੁਧੁ ਭਾਈ ॥
सो गिआनु धिआनु जो तुधु भाई ॥
जो तुझे अच्छा लगता है, उसे भला समझना ही ज्ञान एवं ध्यान है।
ਸੋਈ ਜਪੁ ਜੋ ਪ੍ਰਭ ਜੀਉ ਭਾਵੈ ਭਾਣੈ ਪੂਰ ਗਿਆਨਾ ਜੀਉ ॥੧॥
सोई जपु जो प्रभ जीउ भावै भाणै पूर गिआना जीउ ॥१॥
जो पूज्य प्रभु को भाता है, वही जप है, उसकी इच्छा में रहना ही पूर्ण ज्ञान है॥१॥
ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਨਾਮੁ ਤੇਰਾ ਸੋਈ ਗਾਵੈ ॥ ਜੋ ਸਾਹਿਬ ਤੇਰੈ ਮਨਿ ਭਾਵੈ ॥
अम्रितु नामु तेरा सोई गावै ॥
हे प्रभु ! तेरा नाम अमृत है परन्तु इस नाम को वहीं गाता है,
ਤੂੰ ਸੰਤਨ ਕਾ ਸੰਤ ਤੁਮਾਰੇ ਸੰਤ ਸਾਹਿਬ ਮਨੁ ਮਾਨਾ ਜੀਉ ॥੨॥
जो साहिब तेरै मनि भावै ॥
जो तेरे मन को प्यारा लगता है।
ਤੂੰ ਸੰਤਨ ਕੀ ਕਰਹਿ ਪ੍ਰਤਿਪਾਲਾ ॥
तूं संतन का संत तुमारे संत साहिब मनु माना जीउ ॥२॥
तुम संतों के हो और संत तुम्हारे हैं। हे स्वामी ! संतों का चित तुझ में माना हुआ है।॥२॥
ਸੰਤ ਖੇਲਹਿ ਤੁਮ ਸੰਗਿ ਗੋਪਾਲਾ ॥
तूं संतन की करहि प्रतिपाला ॥
हे ईश्वर ! तुम संतों का पालन करते हो।
ਸੰਤ ਖੇਲਹਿ ਤੁਮ ਸੰਗਿ ਗੋਪਾਲਾ ॥
संत खेलहि तुम संगि गोपाला ॥
हे गोपाल ! संत तेरे साथ प्यार की खेल खेलते हैं।
ਅਪੁਨੇ ਸੰਤ ਤੁਧੁ ਖਰੇ ਪਿਆਰੇ ਤੂ ਸੰਤਨ ਕੇ ਪ੍ਰਾਨਾ ਜੀਉ ॥੩॥
अपुने संत तुधु खरे पिआरे तू संतन के प्राना जीउ ॥३॥
तुझे अपने संत अति प्रिय हैं। तुम अपने संतों के प्राण हो।॥३॥
ਉਨ ਸੰਤਨ ਕੈ ਮੇਰਾ ਮਨੁ ਕੁਰਬਾਨੇ ॥
उन संतन कै मेरा मनु कुरबाने ॥
मेरा मन उन संतों पर कुर्बान जाता है,
ਜਿਨ ਤੂੰ ਜਾਤਾ ਜੋ ਤੁਧੁ ਮਨਿ ਭਾਨੇ ॥
जिन तूं जाता जो तुधु मनि भाने ॥
जिन्होंने तुझे पहचान लिया है और जो तेरे मन को अच्छे लगते हैं।
ਤਿਨ ਕੈ ਸੰਗਿ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ਹਰਿ ਰਸ ਨਾਨਕ ਤ੍ਰਿਪਤਿ ਅਘਾਨਾ ਜੀਉ ॥੪॥੧੩॥੨੦॥
तिन कै संगि सदा सुखु पाइआ हरि रस नानक त्रिपति अघाना जीउ ॥४॥१३॥२०॥
उनकी संगति में रहकर मैंने सदैव सुख पा लिया है। हे नानक ! हरि रस का पान करके मैं तृप्त एवं संतुष्ट हो गया हूँ ॥४॥१३॥२०॥
ਮਾਝ ਮਹਲਾ ੫ ॥
माझ महला ५ ॥
माझ महला ५ ॥
ਤੂੰ ਜਲਨਿਧਿ ਹਮ ਮੀਨ ਤੁਮਾਰੇ ॥
तूं जलनिधि हम मीन तुमारे ॥
हे परमेश्वर ! तुम जलनिधि हो और हम जल में रहने वाली तेरी मछलियाँ हैं।
ਤੇਰਾ ਨਾਮੁ ਬੂੰਦ ਹਮ ਚਾਤ੍ਰਿਕ ਤਿਖਹਾਰੇ ॥
तेरा नामु बूंद हम चात्रिक तिखहारे ॥
तेरा नाम वर्षा की बूंद है और हम प्यासे पपीहे हैं।
ਤੁਮਰੀ ਆਸ ਪਿਆਸਾ ਤੁਮਰੀ ਤੁਮ ਹੀ ਸੰਗਿ ਮਨੁ ਲੀਨਾ ਜੀਉ ॥੧॥
तुमरी आस पिआसा तुमरी तुम ही संगि मनु लीना जीउ ॥१॥
तुम ही मेरी आशा हो और मुझे तेरे नाम रूपी अमृत का पान करने की प्यास लगी हुई है। मुझ पर ऐसी कृपा करो ताकि मेरा मन तुझ में ही लीन हुआ रहे॥१॥
ਜਿਉ ਬਾਰਿਕੁ ਪੀ ਖੀਰੁ ਅਘਾਵੈ ॥
जिउ बारिकु पी खीरु अघावै ॥
जिस तरह बालक दुग्धपान करके तृप्त होता है,
ਜਿਉ ਨਿਰਧਨੁ ਧਨੁ ਦੇਖਿ ਸੁਖੁ ਪਾਵੈ ॥
जिउ निरधनु धनु देखि सुखु पावै ॥
जैसे एक निर्धन दौलत मिल जाने पर प्रसन्न होता है,
ਤ੍ਰਿਖਾਵੰਤ ਜਲੁ ਪੀਵਤ ਠੰਢਾ ਤਿਉ ਹਰਿ ਸੰਗਿ ਇਹੁ ਮਨੁ ਭੀਨਾ ਜੀਉ ॥੨॥
त्रिखावंत जलु पीवत ठंढा तिउ हरि संगि इहु मनु भीना जीउ ॥२॥
जैसे प्यासा पुरुष शीतल जल पान करके शीतल हो जाता है वैसे ही मेरा यह मन भगवान के प्रेम में भीग गया है ॥२॥
ਜਿਉ ਅੰਧਿਆਰੈ ਦੀਪਕੁ ਪਰਗਾਸਾ ॥
जिउ अंधिआरै दीपकु परगासा ॥
जिस तरह दीपक अंधेरे में प्रकाश कर देता है,
ਭਰਤਾ ਚਿਤਵਤ ਪੂਰਨ ਆਸਾ ॥
भरता चितवत पूरन आसा ॥
जिस तरह अपने पति का ध्यान करने वाली पत्नी की आशा पूरी हो जाती है,
ਮਿਲਿ ਪ੍ਰੀਤਮ ਜਿਉ ਹੋਤ ਅਨੰਦਾ ਤਿਉ ਹਰਿ ਰੰਗਿ ਮਨੁ ਰੰਗੀਨਾ ਜੀਉ ॥੩॥
मिलि प्रीतम जिउ होत अनंदा तिउ हरि रंगि मनु रंगीना जीउ ॥३॥
जिस तरह प्राणी अपने प्रियतम से मिलकर प्रसन्न होता है, वैसे ही मेरा यह मन भगवान के प्रेम में मग्न हो गया है॥३॥
ਸੰਤਨ ਮੋ ਕਉ ਹਰਿ ਮਾਰਗਿ ਪਾਇਆ ॥
संतन मो कउ हरि मारगि पाइआ ॥
संतजनों ने मुझे प्रभु के मार्ग लगा दिया है।
ਸਾਧ ਕ੍ਰਿਪਾਲਿ ਹਰਿ ਸੰਗਿ ਗਿਝਾਇਆ ॥
साध क्रिपालि हरि संगि गिझाइआ ॥
संतों की कृपा से मेरा मन भगवान से मिल गया है।
ਹਰਿ ਹਮਰਾ ਹਮ ਹਰਿ ਕੇ ਦਾਸੇ ਨਾਨਕ ਸਬਦੁ ਗੁਰੂ ਸਚੁ ਦੀਨਾ ਜੀਉ ॥੪॥੧੪॥੨੧॥
हरि हमरा हम हरि के दासे नानक सबदु गुरू सचु दीना जीउ ॥४॥१४॥२१॥
भगवान मेरा स्वामी है और मैं भगवान का सेवक हूँ। हे नानक ! गुरदेव ने मुझे सत्य नाम का दान दिया है ॥४॥१४॥२१॥
ਮਾਝ ਮਹਲਾ ੫ ॥
माझ महला ५ ॥
माझ महला ५ ॥
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਨਾਮੁ ਸਦਾ ਨਿਰਮਲੀਆ ॥
अम्रित नामु सदा निरमलीआ ॥
भगवान का अमृतमयी नाम सदैव ही निर्मल रहता है।
ਸੁਖਦਾਈ ਦੂਖ ਬਿਡਾਰਨ ਹਰੀਆ ॥
सुखदाई दूख बिडारन हरीआ ॥
भगवान सुख देने वाला और दुखों का नाश करने वाला है।
ਅਵਰਿ ਸਾਦ ਚਖਿ ਸਗਲੇ ਦੇਖੇ ਮਨ ਹਰਿ ਰਸੁ ਸਭ ਤੇ ਮੀਠਾ ਜੀਉ ॥੧॥
अवरि साद चखि सगले देखे मन हरि रसु सभ ते मीठा जीउ ॥१॥
हे मेरे मन ! तूने अन्य स्वाद चखकर देख लिए हैं परन्तु हरि-रस ही सबसे मीठा है॥१॥