ਜੋ ਜੋ ਪੀਵੈ ਸੋ ਤ੍ਰਿਪਤਾਵੈ ॥
जो जो पीवै सो त्रिपतावै ॥
जो कोई भी इस हरि-रस का पान करता है, वह प्रसन्न हो जाता है।
ਅਮਰੁ ਹੋਵੈ ਜੋ ਨਾਮ ਰਸੁ ਪਾਵੈ ॥
अमरु होवै जो नाम रसु पावै ॥
जो नाम रस को प्राप्त कर लेता है, वह अमर हो जाता है।
ਨਾਮ ਨਿਧਾਨ ਤਿਸਹਿ ਪਰਾਪਤਿ ਜਿਸੁ ਸਬਦੁ ਗੁਰੂ ਮਨਿ ਵੂਠਾ ਜੀਉ ॥੨॥
नाम निधान तिसहि परापति जिसु सबदु गुरू मनि वूठा जीउ ॥२॥
नाम की निधि उसको मिलती है, जिसके हृदय में गुरु की वाणी वास करती है॥२॥
ਜਿਨਿ ਹਰਿ ਰਸੁ ਪਾਇਆ ਸੋ ਤ੍ਰਿਪਤਿ ਅਘਾਨਾ ॥
जिनि हरि रसु पाइआ सो त्रिपति अघाना ॥
जिसने भी हरि रस को पाया है, वह तृप्त हो गया है।
ਜਿਨਿ ਹਰਿ ਸਾਦੁ ਪਾਇਆ ਸੋ ਨਾਹਿ ਡੁਲਾਨਾ ॥
जिनि हरि सादु पाइआ सो नाहि डुलाना ॥
जो व्यक्ति हरि-रस का स्वाद प्राप्त कर लेता है, वह फिर कभी डगमगाता नहीं।
ਤਿਸਹਿ ਪਰਾਪਤਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮਾ ਜਿਸੁ ਮਸਤਕਿ ਭਾਗੀਠਾ ਜੀਉ ॥੩॥
तिसहि परापति हरि हरि नामा जिसु मसतकि भागीठा जीउ ॥३॥
भगवान का हरि नाम उसे ही प्राप्त होता है, जिसके मस्तक पर भाग्य विद्यमान होता है।
ਹਰਿ ਇਕਸੁ ਹਥਿ ਆਇਆ ਵਰਸਾਣੇ ਬਹੁਤੇਰੇ ॥
हरि इकसु हथि आइआ वरसाणे बहुतेरे ॥
परमात्मा अकेले गुरु के हाथ लगा है, जिससे बहुत ही लाभ प्राप्त करते हैं।
ਤਿਸੁ ਲਗਿ ਮੁਕਤੁ ਭਏ ਘਣੇਰੇ ॥
तिसु लगि मुकतु भए घणेरे ॥
उससे संगति करके बहुत सारे लोग मुक्त हो जाते हैं।
ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨਾ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਾਈਐ ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਵਿਰਲੀ ਡੀਠਾ ਜੀਉ ॥੪॥੧੫॥੨੨॥
नामु निधाना गुरमुखि पाईऐ कहु नानक विरली डीठा जीउ ॥४॥१५॥२२॥
नाम की निधि गुरदेव से ही प्राप्त होती है। हे नानक ! उस नाम-निधि के विरले पुरुषों ने ही दर्शन किए हैं।॥४॥१५॥२२॥
ਮਾਝ ਮਹਲਾ ੫ ॥
माझ महला ५ ॥माझ महला ५ ॥
ਨਿਧਿ ਸਿਧਿ ਰਿਧਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਮੇਰੈ ॥
निधि सिधि रिधि हरि हरि हरि मेरै ॥
हरि-परमेश्वर का हरि-नाम ही मेरी निधियां, सिद्धियाँ एवं ऋद्धियाँ हैं।
ਜਨਮੁ ਪਦਾਰਥੁ ਗਹਿਰ ਗੰਭੀਰੈ ॥
जनमु पदारथु गहिर ग्मभीरै ॥
गहरे एवं गम्भीर ईश्वर की दया से मुझे दुर्लभ मनुष्य जन्म मिला है।
ਲਾਖ ਕੋਟ ਖੁਸੀਆ ਰੰਗ ਰਾਵੈ ਜੋ ਗੁਰ ਲਾਗਾ ਪਾਈ ਜੀਉ ॥੧॥
लाख कोट खुसीआ रंग रावै जो गुर लागा पाई जीउ ॥१॥
जो प्राणी गुरु की चरण-सेवा में लगा है, वह लाखों, करोड़ों खुशियाँ एवं आनन्द भोगता है॥१॥
ਦਰਸਨੁ ਪੇਖਤ ਭਏ ਪੁਨੀਤਾ ॥
दरसनु पेखत भए पुनीता ॥
गुरु के दर्शन करके प्राणी पवित्र हो जाता है
ਸਗਲ ਉਧਾਰੇ ਭਾਈ ਮੀਤਾ ॥
सगल उधारे भाई मीता ॥
और वह अपने भ्राताओं एवं सज्जनों को बचा लेता है।
ਅਗਮ ਅਗੋਚਰੁ ਸੁਆਮੀ ਅਪੁਨਾ ਗੁਰ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਸਚੁ ਧਿਆਈ ਜੀਉ ॥੨॥
अगम अगोचरु सुआमी अपुना गुर किरपा ते सचु धिआई जीउ ॥२॥
गुरदेव की दया से मैं अपने अगम्य, अगोचर व महान सत्य परमात्मा का चिन्तन करता हूँ॥२॥
ਜਾ ਕਉ ਖੋਜਹਿ ਸਰਬ ਉਪਾਏ ॥
जा कउ खोजहि सरब उपाए ॥
जिस भगवान की उसके उत्पन्न किए हुए समस्त जीव खोज करते रहते हैं,
ਵਡਭਾਗੀ ਦਰਸਨੁ ਕੋ ਵਿਰਲਾ ਪਾਏ ॥
वडभागी दरसनु को विरला पाए ॥
उसके दर्शन कोई विरला भाग्यशाली ही प्राप्त करता है।
ਊਚ ਅਪਾਰ ਅਗੋਚਰ ਥਾਨਾ ਓਹੁ ਮਹਲੁ ਗੁਰੂ ਦੇਖਾਈ ਜੀਉ ॥੩॥
ऊच अपार अगोचर थाना ओहु महलु गुरू देखाई जीउ ॥३॥
प्रभु का निवास सर्वोच्च, अपार एवं अगोचर है तथा गुरु ने मुझे प्रभु निवास के दर्शन करवा दिए हैं॥३॥
ਗਹਿਰ ਗੰਭੀਰ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਨਾਮੁ ਤੇਰਾ ॥
गहिर ग्मभीर अम्रित नामु तेरा ॥
हे प्रभु ! तू गहरा और गम्भीर है, तेरा नाम अमृत रूप है।
ਮੁਕਤਿ ਭਇਆ ਜਿਸੁ ਰਿਦੈ ਵਸੇਰਾ ॥
मुकति भइआ जिसु रिदै वसेरा ॥
जिसके हृदय में प्रभु वास करता है, वह मुक्त हो जाता है।
ਗੁਰਿ ਬੰਧਨ ਤਿਨ ਕੇ ਸਗਲੇ ਕਾਟੇ ਜਨ ਨਾਨਕ ਸਹਜਿ ਸਮਾਈ ਜੀਉ ॥੪॥੧੬॥੨੩॥
गुरि बंधन तिन के सगले काटे जन नानक सहजि समाई जीउ ॥४॥१६॥२३॥
हे नानक ! गुरदेव ने जिनके समस्त बन्धन काट दिए हैं, वह सहज ही प्रभु में विलीन हो जाता है॥ ४ ॥ १६ ॥ २३ ॥
ਮਾਝ ਮਹਲਾ ੫ ॥
माझ महला ५ ॥
माझ महला ५ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਹਰਿ ਹਰਿ ਧਿਆਵਉ ॥
प्रभ किरपा ते हरि हरि धिआवउ ॥
प्रभु की कृपा से मैं हरि-परमेश्वर का ध्यान करता हूँ।
ਪ੍ਰਭੂ ਦਇਆ ਤੇ ਮੰਗਲੁ ਗਾਵਉ ॥
प्रभू दइआ ते मंगलु गावउ ॥
प्रभु की दया से मैं उसका मंगल गायन करता हूँ।
ਊਠਤ ਬੈਠਤ ਸੋਵਤ ਜਾਗਤ ਹਰਿ ਧਿਆਈਐ ਸਗਲ ਅਵਰਦਾ ਜੀਉ ॥੧॥
ऊठत बैठत सोवत जागत हरि धिआईऐ सगल अवरदा जीउ ॥१॥
उठते-बैठते, सोते और जागते सब अवस्थाओं में हमें हरि का ध्यान करना चाहिए॥१॥
ਨਾਮੁ ਅਉਖਧੁ ਮੋ ਕਉ ਸਾਧੂ ਦੀਆ ॥
नामु अउखधु मो कउ साधू दीआ ॥
संतों ने मुझे नाम रूपी औषधि प्रदान की है।
ਕਿਲਬਿਖ ਕਾਟੇ ਨਿਰਮਲੁ ਥੀਆ ॥
किलबिख काटे निरमलु थीआ ॥
इसने मेरे समस्त पाप काट दिए हैं और मैं पवित्र हो गया हूँ।
ਅਨਦੁ ਭਇਆ ਨਿਕਸੀ ਸਭ ਪੀਰਾ ਸਗਲ ਬਿਨਾਸੇ ਦਰਦਾ ਜੀਉ ॥੨॥
अनदु भइआ निकसी सभ पीरा सगल बिनासे दरदा जीउ ॥२॥
मेरी सारी पीड़ा दूर हो गई है और मेरे कष्ट मिट गए हैं तथा बड़ा आनंद प्राप्त हो रहा है॥२॥
ਜਿਸ ਕਾ ਅੰਗੁ ਕਰੇ ਮੇਰਾ ਪਿਆਰਾ ॥
जिस का अंगु करे मेरा पिआरा ॥
मेरा प्रियतम प्रभु जिसकी सहायता करता है,
ਸੋ ਮੁਕਤਾ ਸਾਗਰ ਸੰਸਾਰਾ ॥
सो मुकता सागर संसारा ॥
वह संसार सागर से मुक्त हो जाता है।
ਸਤਿ ਕਰੇ ਜਿਨਿ ਗੁਰੂ ਪਛਾਤਾ ਸੋ ਕਾਹੇ ਕਉ ਡਰਦਾ ਜੀਉ ॥੩॥
सति करे जिनि गुरू पछाता सो काहे कउ डरदा जीउ ॥३॥
जिस व्यक्ति ने गुरु को सत्य रूप में समझ लिया है, वह मृत्यु से क्यों भयभीत हो ॥३॥
ਜਬ ਤੇ ਸਾਧੂ ਸੰਗਤਿ ਪਾਏ ॥
जब ते साधू संगति पाए ॥
जब से मैंने साधु की संगति प्राप्त की है,
ਗੁਰ ਭੇਟਤ ਹਉ ਗਈ ਬਲਾਏ ॥
गुर भेटत हउ गई बलाए ॥
तब से गुरु को मिलने से अहंकार का भूत दूर हो गया है।
ਸਾਸਿ ਸਾਸਿ ਹਰਿ ਗਾਵੈ ਨਾਨਕੁ ਸਤਿਗੁਰ ਢਾਕਿ ਲੀਆ ਮੇਰਾ ਪੜਦਾ ਜੀਉ ॥੪॥੧੭॥੨੪॥
सासि सासि हरि गावै नानकु सतिगुर ढाकि लीआ मेरा पड़दा जीउ ॥४॥१७॥२४॥
हे प्रभु ! श्वास-श्वास से नानक परमात्मा की कीर्ति गायन करता है। सतिगुरु ने मेरे पाप ढांप लिए हैं।॥४॥१७ ॥२४॥
ਮਾਝ ਮਹਲਾ ੫ ॥
माझ महला ५ ॥
माझ महला ५ ॥
ਓਤਿ ਪੋਤਿ ਸੇਵਕ ਸੰਗਿ ਰਾਤਾ ॥
ओति पोति सेवक संगि राता ॥
भगवान अपने सेवकों से ताने-बाने की तरह मिला रहता है।
ਪ੍ਰਭ ਪ੍ਰਤਿਪਾਲੇ ਸੇਵਕ ਸੁਖਦਾਤਾ ॥
प्रभ प्रतिपाले सेवक सुखदाता ॥
सुखदाता परमेश्वर अपने सेवकों का पालन करता है।
ਪਾਣੀ ਪਖਾ ਪੀਸਉ ਸੇਵਕ ਕੈ ਠਾਕੁਰ ਹੀ ਕਾ ਆਹਰੁ ਜੀਉ ॥੧॥
पाणी पखा पीसउ सेवक कै ठाकुर ही का आहरु जीउ ॥१॥
हे ईश्वर ! जो भक्त तेरे भजन में लीन हैं, मैं उनके घर पानी ढ़ोता, पंखा करता एवं चक्की से आटा पीसता हूँ॥१॥
ਕਾਟਿ ਸਿਲਕ ਪ੍ਰਭਿ ਸੇਵਾ ਲਾਇਆ ॥
काटि सिलक प्रभि सेवा लाइआ ॥
हे परमात्मा ! आपने मेरी वासना रूपी फाँसी को काट मुझे अपनी सेवा में प्रवृत्त कर लिया है।
ਹੁਕਮੁ ਸਾਹਿਬ ਕਾ ਸੇਵਕ ਮਨਿ ਭਾਇਆ ॥
हुकमु साहिब का सेवक मनि भाइआ ॥
इसलिए प्रभु का हुक्म सेवक के मन को अच्छा लगता है।
ਸੋਈ ਕਮਾਵੈ ਜੋ ਸਾਹਿਬ ਭਾਵੈ ਸੇਵਕੁ ਅੰਤਰਿ ਬਾਹਰਿ ਮਾਹਰੁ ਜੀਉ ॥੨॥
सोई कमावै जो साहिब भावै सेवकु अंतरि बाहरि माहरु जीउ ॥२॥
सेवक वही कर्म करता है जो प्रभु के मन को भला लगता है। इसलिए सेवक भीतर-बाहर सेवा करने में परिपक्व हो जाता है॥२॥
ਤੂੰ ਦਾਨਾ ਠਾਕੁਰੁ ਸਭ ਬਿਧਿ ਜਾਨਹਿ ॥
तूं दाना ठाकुरु सभ बिधि जानहि ॥
हे प्रभु ! तुम बुद्धिमान स्वामी हो और समस्त युक्तियों में सर्वज्ञ हो।