Hindi Page 180

ਪ੍ਰਾਣੀ ਜਾਣੈ ਇਹੁ ਤਨੁ ਮੇਰਾ ॥
प्राणी जाणै इहु तनु मेरा ॥
प्राणी विचार करता है कि यह शरीर उसका अपना है।

ਬਹੁਰਿ ਬਹੁਰਿ ਉਆਹੂ ਲਪਟੇਰਾ ॥
बहुरि बहुरि उआहू लपटेरा ॥
वह बार-बार उस शरीर से ही लिपटता है।

ਪੁਤ੍ਰ ਕਲਤ੍ਰ ਗਿਰਸਤ ਕਾ ਫਾਸਾ ॥
पुत्र कलत्र गिरसत का फासा ॥
जितनी देर तक पुत्र, स्त्री एवं गृहस्थ के मोह का फंदा उसके गले में पड़ा रहता है,

ਹੋਨੁ ਨ ਪਾਈਐ ਰਾਮ ਕੇ ਦਾਸਾ ॥੧॥
होनु न पाईऐ राम के दासा ॥१॥
तब तक वह राम का दास नहीं बनता ॥ १ ॥

ਕਵਨ ਸੁ ਬਿਧਿ ਜਿਤੁ ਰਾਮ ਗੁਣ ਗਾਇ ॥
कवन सु बिधि जितु राम गुण गाइ ॥
वह कौन-सी विधि है, जिससे राम का यश गायन किया जाए?

ਕਵਨ ਸੁ ਮਤਿ ਜਿਤੁ ਤਰੈ ਇਹ ਮਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
कवन सु मति जितु तरै इह माइ ॥१॥ रहाउ ॥
हे माता! वह कौन-सी बुद्धि है, जिससे यह प्राणी माया से पार हो जाए। १॥ रहाउ॥

ਜੋ ਭਲਾਈ ਸੋ ਬੁਰਾ ਜਾਨੈ ॥
जो भलाई सो बुरा जानै ॥
जो कार्य मानव की भलाई का है, उसको वह बुरा समझता है।

ਸਾਚੁ ਕਹੈ ਸੋ ਬਿਖੈ ਸਮਾਨੈ ॥
साचु कहै सो बिखै समानै ॥
यदि कोई उसको सत्य कहे, तो वह उसको विष के समान कड़वा लगता है।

ਜਾਣੈ ਨਾਹੀ ਜੀਤ ਅਰੁ ਹਾਰ ॥
जाणै नाही जीत अरु हार ॥
वह नहीं जानता कि जीत क्या है और हार क्या है ?

ਇਹੁ ਵਲੇਵਾ ਸਾਕਤ ਸੰਸਾਰ ॥੨॥
इहु वलेवा साकत संसार ॥२॥
इस दुनिया में शाक्त व्यक्ति का यही जीवन-आचरण है। २॥

ਜੋ ਹਲਾਹਲ ਸੋ ਪੀਵੈ ਬਉਰਾ ॥
जो हलाहल सो पीवै बउरा ॥
जो विष है, पागल पुरुष उसको पान करता है।

ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਨਾਮੁ ਜਾਨੈ ਕਰਿ ਕਉਰਾ ॥
अम्रितु नामु जानै करि कउरा ॥
प्रभु के अमृत नाम को वह कड़वा समझता है।

ਸਾਧਸੰਗ ਕੈ ਨਾਹੀ ਨੇਰਿ ॥
साधसंग कै नाही नेरि ॥
वह साधु-संतों की संगति के निकट नहीं आता,

ਲਖ ਚਉਰਾਸੀਹ ਭ੍ਰਮਤਾ ਫੇਰਿ ॥੩॥
लख चउरासीह भ्रमता फेरि ॥३॥
जिससे वह चौरासी लाख योनियों में भटकता फिरता है |

ਏਕੈ ਜਾਲਿ ਫਹਾਏ ਪੰਖੀ ॥
एकै जालि फहाए पंखी ॥
समस्त जीव पक्षी माया ने अपने मोह रूपी जाल में फंसाए हुए हैं।

ਰਸਿ ਰਸਿ ਭੋਗ ਕਰਹਿ ਬਹੁ ਰੰਗੀ ॥
रसि रसि भोग करहि बहु रंगी ॥
मनुष्य स्वाद लेकर अनेक प्रकार के भोग भोगता है।

ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਜਿਸੁ ਭਏ ਕ੍ਰਿਪਾਲ ॥  
कहु नानक जिसु भए क्रिपाल ॥
हे नानक ! कहो- जिस व्यक्ति पर प्रभु कृपालु हो गया है,

ਗੁਰਿ ਪੂਰੈ ਤਾ ਕੇ ਕਾਟੇ ਜਾਲ ॥੪॥੧੩॥੮੨॥
गुरि पूरै ता के काटे जाल ॥४॥१३॥८२॥
पूर्ण गुरु ने उसके मोह-माया के बंधन काट दिए हैं। ४॥ १३ ॥८२॥

ਗਉੜੀ ਗੁਆਰੇਰੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥
गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥
गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥

ਤਉ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਮਾਰਗੁ ਪਾਈਐ ॥
तउ किरपा ते मारगु पाईऐ ॥
हे प्रभु! तेरी कृपा से जीवन-मार्ग मिलता है।

ਪ੍ਰਭ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਨਾਮੁ ਧਿਆਈਐ ॥
प्रभ किरपा ते नामु धिआईऐ ॥
प्रभु की कृपा से नाम का ध्यान किया जाता है।

ਪ੍ਰਭ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਬੰਧਨ ਛੁਟੈ ॥
प्रभ किरपा ते बंधन छुटै ॥
प्रभु की कृपा से प्राणी बन्धनों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है।

ਤਉ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਹਉਮੈ ਤੁਟੈ ॥੧॥
तउ किरपा ते हउमै तुटै ॥१॥
हे प्रभु! तेरी कृपा से अहंकार दूर हो जाता है। १॥

ਤੁਮ ਲਾਵਹੁ ਤਉ ਲਾਗਹ ਸੇਵ ॥
तुम लावहु तउ लागह सेव ॥
हे ईश्वर ! यदि तू मुझे अपनी सेवा में लगाए, तो ही मैं तेरी सेवा-भक्ति में लगता हूँ।

ਹਮ ਤੇ ਕਛੂ ਨ ਹੋਵੈ ਦੇਵ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हम ते कछू न होवै देव ॥१॥ रहाउ ॥
हे देव ! अपने आप में कुछ भी नहीं कर सकता। १॥ रहाउ ।

ਤੁਧੁ ਭਾਵੈ ਤਾ ਗਾਵਾ ਬਾਣੀ ॥
तुधु भावै ता गावा बाणी ॥
हे ईश्वर ! यदि तुझे अच्छा लगे तो मैं तेरी वाणी गा सकता हूँ।

ਤੁਧੁ ਭਾਵੈ ਤਾ ਸਚੁ ਵਖਾਣੀ ॥
तुधु भावै ता सचु वखाणी ॥
हे प्रभु! यदि तुझे अच्छा लगे तो मैं सत्य बोलता हूँ।

ਤੁਧੁ ਭਾਵੈ ਤਾ ਸਤਿਗੁਰ ਮਇਆ ॥
तुधु भावै ता सतिगुर मइआ ॥
यदि तुझे अच्छा लगे तो ही सतिगुरु की दया जीव पर होती है।

ਸਰਬ ਸੁਖਾ ਪ੍ਰਭ ਤੇਰੀ ਦਇਆ ॥੨॥
सरब सुखा प्रभ तेरी दइआ ॥२॥
हे मेरे ठाकुर ! तेरी दया से ही जीव को सर्व सुख प्राप्त होते हैं। ॥२॥

ਜੋ ਤੁਧੁ ਭਾਵੈ ਸੋ ਨਿਰਮਲ ਕਰਮਾ ॥
जो तुधु भावै सो निरमल करमा ॥
हे प्रभु! जो तुझे उपयुक्त लगता है, वही पवित्र कर्म है।

ਜੋ ਤੁਧੁ ਭਾਵੈ ਸੋ ਸਚੁ ਧਰਮਾ ॥
जो तुधु भावै सो सचु धरमा ॥
हे नाथ ! जो तुझे लुभाता है, वही सत्य धर्म है।

ਸਰਬ ਨਿਧਾਨ ਗੁਣ ਤੁਮ ਹੀ ਪਾਸਿ ॥
सरब निधान गुण तुम ही पासि ॥
सर्वगुणों का खजाना तेरे पास है।

ਤੂੰ ਸਾਹਿਬੁ ਸੇਵਕ ਅਰਦਾਸਿ ॥੩॥
तूं साहिबु सेवक अरदासि ॥३॥
हे प्रभु! तू मेरा स्वामी है और तेरा सेवक तेरे समक्ष यही प्रार्थना करता है |

ਮਨੁ ਤਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਹੋਇ ਹਰਿ ਰੰਗਿ ॥
मनु तनु निरमलु होइ हरि रंगि ॥
ईश्वर के प्रेम में मन एवं तन पवित्र हो जाते है |

ਸਰਬ ਸੁਖਾ ਪਾਵਉ ਸਤਸੰਗਿ ॥
सरब सुखा पावउ सतसंगि ॥
सत्संग में जाने से सर्व सुख प्राप्त हो जाते हैं।

ਨਾਮਿ ਤੇਰੈ ਰਹੈ ਮਨੁ ਰਾਤਾ ॥
नामि तेरै रहै मनु राता ॥
हे प्रभु! मेरा मन तेरे नाम में ही मग्न रहे।

ਇਹੁ ਕਲਿਆਣੁ ਨਾਨਕ ਕਰਿ ਜਾਤਾ ॥੪॥੧੪॥੮੩॥
इहु कलिआणु नानक करि जाता ॥४॥१४॥८३॥
हे नानक ! मैं उसे ही कल्याण समझता हूँ |॥४॥१४॥८३॥

ਗਉੜੀ ਗੁਆਰੇਰੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥
गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥
गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥

ਆਨ ਰਸਾ ਜੇਤੇ ਤੈ ਚਾਖੇ ॥
आन रसा जेते तै चाखे ॥
हे मेरी जिव्हा ! हरि-रस के सिवाय अन्य जितने भी रस तू चखती है,

ਨਿਮਖ ਨ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਤੇਰੀ ਲਾਥੇ ॥
निमख न त्रिसना तेरी लाथे ॥
उनसे तेरी तृष्णा एक क्षण-मात्र के लिए भी दूर नहीं होती।

ਹਰਿ ਰਸ ਕਾ ਤੂੰ ਚਾਖਹਿ ਸਾਦੁ ॥
हरि रस का तूं चाखहि सादु ॥
यदि तू हरि-रस की मिठास चख ले तो

ਚਾਖਤ ਹੋਇ ਰਹਹਿ ਬਿਸਮਾਦੁ ॥੧॥
चाखत होइ रहहि बिसमादु ॥१॥
तू इसको चखकर चकित हो जाएगी। ॥ १ ॥

ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਰਸਨਾ ਪੀਉ ਪਿਆਰੀ ॥
अम्रितु रसना पीउ पिआरी ॥
हे मेरी प्रिय जिव्हा! तू हरि-रस रूपी अमृत का पान कर।

ਇਹ ਰਸ ਰਾਤੀ ਹੋਇ ਤ੍ਰਿਪਤਾਰੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
इह रस राती होइ त्रिपतारी ॥१॥ रहाउ ॥
इस हरि-रस के स्वाद में अनुरक्त हुई तू तृप्त हो जाएगी। ॥ १॥ रहाउ ॥

ਹੇ ਜਿਹਵੇ ਤੂੰ ਰਾਮ ਗੁਣ ਗਾਉ ॥
हे जिहवे तूं राम गुण गाउ ॥
हे जिव्हा ! तू राम का यशोगान कर।

ਨਿਮਖ ਨਿਮਖ ਹਰਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਧਿਆਉ ॥
निमख निमख हरि हरि हरि धिआउ ॥
क्षण-क्षण तू हरि-परमेश्वर के नाम का ध्यान कर।

ਆਨ ਨ ਸੁਨੀਐ ਕਤਹੂੰ ਜਾਈਐ ॥
आन न सुनीऐ कतहूं जाईऐ ॥
हरि-परमेश्वर के नाम के अलावा कुछ भी सुनना नहीं चाहिए और सत्संगति के अलावा कहीं और नहीं जाना चाहिए।

ਸਾਧਸੰਗਤਿ ਵਡਭਾਗੀ ਪਾਈਐ ॥੨॥
साधसंगति वडभागी पाईऐ ॥२॥
सत्संग बड़े सौभाग्य से मिलती है ॥ २ ॥

ਆਠ ਪਹਰ ਜਿਹਵੇ ਆਰਾਧਿ ॥  
आठ पहर जिहवे आराधि ॥
हे जिव्हा ! आठ प्रहर ही तू अगाध एवं

ਪਾਰਬ੍ਰਹਮ ਠਾਕੁਰ ਆਗਾਧਿ ॥
पारब्रहम ठाकुर आगाधि ॥
जगत् के ठाकुर परब्रह्म की आराधना कर।

ਈਹਾ ਊਹਾ ਸਦਾ ਸੁਹੇਲੀ ॥
ईहा ऊहा सदा सुहेली ॥
यहाँ (इहलोक) और वहाँ (परलोक) तू सदैव सुप्रसन्न रहेगी।

ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਵਤ ਰਸਨ ਅਮੋਲੀ ॥੩॥
हरि गुण गावत रसन अमोली ॥३॥
हे जिव्हा ! प्रभु का यशोगान करने से तू अमूल्य गुणों वाली हो जाएगी। ॥ ३ ॥

ਬਨਸਪਤਿ ਮਉਲੀ ਫਲ ਫੁਲ ਪੇਡੇ ॥
बनसपति मउली फल फुल पेडे ॥
चाहे वनस्पति खिली रहती है और पेड़ों को फल एवं फूल लगे होते हैं

ਇਹ ਰਸ ਰਾਤੀ ਬਹੁਰਿ ਨ ਛੋਡੇ ॥
इह रस राती बहुरि न छोडे ॥
परन्तु हरि-रस में मग्न हुई जिव्हा इस हरि-रस को नहीं छोड़ती

ਆਨ ਨ ਰਸ ਕਸ ਲਵੈ ਨ ਲਾਈ ॥ 
आन न रस कस लवै न लाई ॥
चूंकि कोई दूसरे मीठे व नमकीन स्वाद इसके तुल्य नहीं।

ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਗੁਰ ਭਏ ਹੈ ਸਹਾਈ ॥੪॥੧੫॥੮੪॥
कहु नानक गुर भए है सहाई ॥४॥१५॥८४॥
हे नानक ! गुरु मेरे सहायक हो गए हैं। ॥४॥१५॥८४॥

ਗਉੜੀ ਗੁਆਰੇਰੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥
गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥
गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥

ਮਨੁ ਮੰਦਰੁ ਤਨੁ ਸਾਜੀ ਬਾਰਿ ॥
मनु मंदरु तनु साजी बारि ॥
मन एक मन्दिर है और तन को इसके पास मेड़ बनाया गया है।

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