ਬਿਨੁ ਸਤਿਗੁਰ ਕਿਨੈ ਨ ਪਾਇਓ ਕਰਿ ਵੇਖਹੁ ਮਨਿ ਵੀਚਾਰਿ ॥
बिनु सतिगुर किनै न पाइओ करि वेखहु मनि वीचारि ॥
सतिगुरु के बिना परमात्मा को किसी ने भी नहीं पाया, बेशक अपने हृदय में विचार करके देख लो।
ਮਨਮੁਖ ਮੈਲੁ ਨ ਉਤਰੈ ਜਿਚਰੁ ਗੁਰ ਸਬਦਿ ਨ ਕਰੇ ਪਿਆਰੁ ॥੧॥
मनमुख मैलु न उतरै जिचरु गुर सबदि न करे पिआरु ॥१॥
जब तक जीव गुरु के उपदेश से प्रीति नहीं करता, अर्थात् अपना मन गुरु के उपदेश में नहीं टिकाता, ऐसे मनमुख के हृदय से तब तक विषय-विकारों की मैल नष्ट नहीं होती ॥ १ ॥
ਮਨ ਮੇਰੇ ਸਤਿਗੁਰ ਕੈ ਭਾਣੈ ਚਲੁ ॥
मन मेरे सतिगुर कै भाणै चलु ॥
हे मेरे मन ! तुम सतगुरु की इच्छानुसार चलो
ਨਿਜ ਘਰਿ ਵਸਹਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੀਵਹਿ ਤਾ ਸੁਖ ਲਹਹਿ ਮਹਲੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
निज घरि वसहि अम्रितु पीवहि ता सुख लहहि महलु ॥१॥ रहाउ ॥
तभी तुम निज स्वरूप में रह कर नामामृत पान कर सकोगे तथा सुख धम को प्राप्त करोगे॥ १॥ रहाउ॥
ਅਉਗੁਣਵੰਤੀ ਗੁਣੁ ਕੋ ਨਹੀ ਬਹਣਿ ਨ ਮਿਲੈ ਹਦੂਰਿ ॥
अउगुणवंती गुणु को नही बहणि न मिलै हदूरि ॥
जिस जीव में अवगुण ही विद्यमान हैं, कोई भी गुण नहीं है, उनको प्रभु के सम्मुख बैठने का अवसर प्राप्त नहीं होता।
ਮਨਮੁਖਿ ਸਬਦੁ ਨ ਜਾਣਈ ਅਵਗਣਿ ਸੋ ਪ੍ਰਭੁ ਦੂਰਿ ॥
मनमुखि सबदु न जाणई अवगणि सो प्रभु दूरि ॥
ऐसे स्वेच्छाचारी जीव गुरु के उपदेश को नहीं जानते तथा अवगुणों के कारण वह परमात्मा से दूर रहते हैं।
ਜਿਨੀ ਸਚੁ ਪਛਾਣਿਆ ਸਚਿ ਰਤੇ ਭਰਪੂਰਿ ॥
जिनी सचु पछाणिआ सचि रते भरपूरि ॥
जिन्होंने सत्य-नाम को पहचाना है, वे उस सत्य-स्वरूप में पूर्ण-रूपेण अनुरक्त हैं।
ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਮਨੁ ਬੇਧਿਆ ਪ੍ਰਭੁ ਮਿਲਿਆ ਆਪਿ ਹਦੂਰਿ ॥੨॥
गुर सबदी मनु बेधिआ प्रभु मिलिआ आपि हदूरि ॥२॥
उनका हृदय गुरु के उपदेश में विंधा गया है तथा परमात्मा उन्हें स्वयं प्रत्यक्ष रूप में मिला है॥ २॥
ਆਪੇ ਰੰਗਣਿ ਰੰਗਿਓਨੁ ਸਬਦੇ ਲਇਓਨੁ ਮਿਲਾਇ ॥
आपे रंगणि रंगिओनु सबदे लइओनु मिलाइ ॥
प्रभु ने स्वयं ही जीवों को अपने रंग में रंगा है तथा गुरु-उपदेश द्वारा अपने साथ मिला लिया है,
ਸਚਾ ਰੰਗੁ ਨ ਉਤਰੈ ਜੋ ਸਚਿ ਰਤੇ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥
सचा रंगु न उतरै जो सचि रते लिव लाइ ॥
जो लिवलीन होकर सत्य परमात्मा में जुड़े हैं, उनका नाम रूपी सत्य रंग नहीं उतरता।
ਚਾਰੇ ਕੁੰਡਾ ਭਵਿ ਥਕੇ ਮਨਮੁਖ ਬੂਝ ਨ ਪਾਇ ॥
चारे कुंडा भवि थके मनमुख बूझ न पाइ ॥
स्वेच्छाचारी जीव सम्पूर्ण सृष्टि में भटकता हुआ थक जाए, किन्तु उन्हें कहीं से भी परमात्मा का रहस्य पता नहीं चल सकता।
ਜਿਸੁ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮੇਲੇ ਸੋ ਮਿਲੈ ਸਚੈ ਸਬਦਿ ਸਮਾਇ ॥੩॥
जिसु सतिगुरु मेले सो मिलै सचै सबदि समाइ ॥३॥
जिस जीव को सत्य गुरु मिलाता है, वही मिल पाता है, वह सत्य ब्रह्म में अभेद हो जाता है ॥ ३॥
ਮਿਤ੍ਰ ਘਣੇਰੇ ਕਰਿ ਥਕੀ ਮੇਰਾ ਦੁਖੁ ਕਾਟੈ ਕੋਇ ॥
मित्र घणेरे करि थकी मेरा दुखु काटै कोइ ॥
जीव रूपी स्त्री कहती है कि मैं संसार में अनेकानेक व्यक्तियों को मित्र बना-बना कर थक गई हूँ कि कोई तो मेरा दुख निवृत्त करे।
ਮਿਲਿ ਪ੍ਰੀਤਮ ਦੁਖੁ ਕਟਿਆ ਸਬਦਿ ਮਿਲਾਵਾ ਹੋਇ ॥
मिलि प्रीतम दुखु कटिआ सबदि मिलावा होइ ॥
अंततः प्रियतम प्रभु से मिल कर दुख निवृत्त होता है, जिसका मिलन गुरु उपदेश द्वारा ही संभव है।
ਸਚੁ ਖਟਣਾ ਸਚੁ ਰਾਸਿ ਹੈ ਸਚੇ ਸਚੀ ਸੋਇ ॥
सचु खटणा सचु रासि है सचे सची सोइ ॥
सत्य श्रद्धा रूपी पूँजी द्वारा जिसने सत्य-नाम रूपी पदार्थ को कमाया है, उस सत्य की सत्य शोभा होती है।
ਸਚਿ ਮਿਲੇ ਸੇ ਨ ਵਿਛੁੜਹਿ ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਹੋਇ ॥੪॥੨੬॥੫੯॥
सचि मिले से न विछुड़हि नानक गुरमुखि होइ ॥४॥२६॥५९॥
नानक देव जी कथन करते हैं कि जो जीव गुरुमुख बनकर सत्य स्वरूप में समाए हैं, फिर वे कभी भी सत्य-स्वरूप से बिछुड़ते नहीं हैं। ॥४॥२६॥५९॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੩ ॥
सिरीरागु महला ३ ॥
श्रीरागु महला ३ ॥
ਆਪੇ ਕਾਰਣੁ ਕਰਤਾ ਕਰੇ ਸ੍ਰਿਸਟਿ ਦੇਖੈ ਆਪਿ ਉਪਾਇ ॥
आपे कारणु करता करे स्रिसटि देखै आपि उपाइ ॥
परमात्मा स्वयं ही कारण एवं स्वयं ही कर्ता है, जो सृष्टि को उत्पन्न करता है और उसकी परवरिश करता है।
ਸਭ ਏਕੋ ਇਕੁ ਵਰਤਦਾ ਅਲਖੁ ਨ ਲਖਿਆ ਜਾਇ ॥
सभ एको इकु वरतदा अलखु न लखिआ जाइ ॥
समस्त प्राणियों में वह एक ही विद्यमान है, पुनः वह अलक्ष्य भी है जो समझा नहीं जा सकता।
ਆਪੇ ਪ੍ਰਭੂ ਦਇਆਲੁ ਹੈ ਆਪੇ ਦੇਇ ਬੁਝਾਇ ॥
आपे प्रभू दइआलु है आपे देइ बुझाइ ॥
स्वयं परमात्मा दयालु भी है जो अपनी कृपा-दृष्टि से अपना स्वरूप समझा भी देता है।
ਗੁਰਮਤੀ ਸਦ ਮਨਿ ਵਸਿਆ ਸਚਿ ਰਹੇ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥੧॥
गुरमती सद मनि वसिआ सचि रहे लिव लाइ ॥१॥
गुरु के उपदेश द्वारा जिन जीवों के मन में वह परमात्मा व्याप्त रहता है, वे उस सत्य स्वरूप में सदा लीन रहते हैं।॥ १॥
ਮਨ ਮੇਰੇ ਗੁਰ ਕੀ ਮੰਨਿ ਲੈ ਰਜਾਇ ॥
मन मेरे गुर की मंनि लै रजाइ ॥
हे मेरे मन ! तुम गुरु की आज्ञा मान कर चलो।
ਮਨੁ ਤਨੁ ਸੀਤਲੁ ਸਭੁ ਥੀਐ ਨਾਮੁ ਵਸੈ ਮਨਿ ਆਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
मनु तनु सीतलु सभु थीऐ नामु वसै मनि आइ ॥१॥ रहाउ ॥
ऐसा करने से तन-मन शांत हो जाता है और मन में नाम आकर बस जाता है।॥ १॥ रहाउ॥
ਜਿਨਿ ਕਰਿ ਕਾਰਣੁ ਧਾਰਿਆ ਸੋਈ ਸਾਰ॥
जिनि करि कारणु धारिआ सोई सार करेइ ॥
जिस प्रभु ने इस सृष्टि को मूल रूप से रच कर सम्भाल रखा है, वही इसका ध्यान रखता है।
ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਪਛਾਣੀਐ ਜਾ ਆਪੇ ਨਦਰਿ ਕਰੇਇ ॥
गुर कै सबदि पछाणीऐ जा आपे नदरि करेइ ॥
यदि गुरु के उपदेश को पहचानें, तभी वह परमेश्वर स्वयं कृपा-दृष्टि करता है
ਸੇ ਜਨ ਸਬਦੇ ਸੋਹਣੇ ਤਿਤੁ ਸਚੈ ਦਰਬਾਰਿ ॥
से जन सबदे सोहणे तितु सचै दरबारि ॥
वह मानव जीवं गुरु उपेदश द्वारा ही उस सत्य परमात्मा के द्वार पर शोभनीय होते हैं।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਚੈ ਸਬਦਿ ਰਤੇ ਆਪਿ ਮੇਲੇ ਕਰਤਾਰਿ ॥੨॥
गुरमुखि सचै सबदि रते आपि मेले करतारि ॥२॥
गुरमुख जीव उस सत्य उपदेश में लीन रहते हैं, उन जीवों को कर्ता पुरुष (परमात्मा) ने अपने श्री चरणों से जोड़ा है ॥२॥
ਗੁਰਮਤੀ ਸਚੁ ਸਲਾਹਣਾ ਜਿਸ ਦਾ ਅੰਤੁ ਨ ਪਾਰਾਵਾਰੁ ॥
गुरमती सचु सलाहणा जिस दा अंतु न पारावारु ॥
हे जीव गुरु का उपदेश ग्रहण कर के उस सत्य स्वरूप परमात्मा का गुणगान करो, जिसके गुणों की कोई सीमा नहीं है।
ਘਟਿ ਘਟਿ ਆਪੇ ਹੁਕਮਿ ਵਸੈ ਹੁਕਮੇ ਕਰੇ ਬੀਚਾਰੁ ॥
घटि घटि आपे हुकमि वसै हुकमे करे बीचारु ॥
सर्वव्यापक परमेश्वर अपने ही आदेश से प्रत्येक ह्रदय में विद्यमान होता तथा अपने आदेश द्वारा ही जीवों की पालना का विचार करता है।
ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਸਾਲਾਹੀਐ ਹਉਮੈ ਵਿਚਹੁ ਖੋਇ ॥
गुर सबदी सालाहीऐ हउमै विचहु खोइ ॥
हे मानव ! गुरु उपदेश द्वारा अपने हृदय में से अहंकार को त्याग कर उस सर्व-सम्पन्न परमात्मा की स्तुति करो।
ਸਾ ਧਨ ਨਾਵੈ ਬਾਹਰੀ ਅਵਗਣਵੰਤੀ ਰੋਇ ॥੩॥
सा धन नावै बाहरी अवगणवंती रोइ ॥३॥
जो नाम-विहीन जीव रूपी स्त्री है। वह अवगुणों वाली रोती रहती है॥ ३॥
ਸਚੁ ਸਲਾਹੀ ਸਚਿ ਲਗਾ ਸਚੈ ਨਾਇ ਤ੍ਰਿਪਤਿ ਹੋਇ ॥
सचु सलाही सचि लगा सचै नाइ त्रिपति होइ ॥
मैं सत्य स्वरूप परमात्मा का चिन्तन करूँ, सत्य में लीन रहूँ तथा सत्य-नाम द्वारा तृप्त रहूँ।
ਗੁਣ ਵੀਚਾਰੀ ਗੁਣ ਸੰਗ੍ਰਹਾ ਅਵਗੁਣ ਕਢਾ ਧੋਇ ॥
गुण वीचारी गुण संग्रहा अवगुण कढा धोइ ॥
शुभ गुणों का विचार करूं, शुभ गुणों को ही एकत्र करूँ, अवगुणों की मैल को नाम-जल से धोकर बाहर निकाल दूँ।
ਆਪੇ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਇਦਾ ਫਿਰਿ ਵੇਛੋੜਾ ਨ ਹੋਇ ॥
आपे मेलि मिलाइदा फिरि वेछोड़ा न होइ ॥
तब परमेश्वर स्वयं ही मिला लेता है और पुनः वियोग नहीं होता।
ਨਾਨਕ ਗੁਰੁ ਸਾਲਾਹੀ ਆਪਣਾ ਜਿਦੂ ਪਾਈ ਪ੍ਰਭੁ ਸੋਇ ॥੪॥੨੭॥੬੦॥
नानक गुरु सालाही आपणा जिदू पाई प्रभु सोइ ॥४॥२७॥६०॥
नानक देव जी कथन करते हैं कि अपने पूर्ण गुरु की श्लाघा करूं, जिनके द्वारा वह प्रभु प्राप्त होता है ॥४॥२७॥६०॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੩ ॥
सिरीरागु महला ३ ॥
श्रीरागु महला ३ ॥
ਸੁਣਿ ਸੁਣਿ ਕਾਮ ਗਹੇਲੀਏ ਕਿਆ ਚਲਹਿ ਬਾਹ ਲੁਡਾਇ ॥
सुणि सुणि काम गहेलीए किआ चलहि बाह लुडाइ ॥
हे कामना में ग्रस्त जीव-रूपी स्त्री ! सुनो, तुम बांहे उलार-उलार कर क्यों चलती हो ?
ਆਪਣਾ ਪਿਰੁ ਨ ਪਛਾਣਹੀ ਕਿਆ ਮੁਹੁ ਦੇਸਹਿ ਜਾਇ ॥
आपणा पिरु न पछाणही किआ मुहु देसहि जाइ ॥
इस लोक में तो तुम अपने पति-परमात्मा को पहचानती नहीं, आगे परलोक में जाकर क्या मुंह दिखाओगी ?
ਜਿਨੀ ਸਖੀ ਕੰਤੁ ਪਛਾਣਿਆ ਹਉ ਤਿਨ ਕੈ ਲਾਗਉ ਪਾਇ ॥
जिनी सखीं कंतु पछाणिआ हउ तिन कै लागउ पाइ ॥
जिस ज्ञानवान सखी ने अपने पति-परमात्मा को पहचान लिया है, गुरु जी कहते हैं कि मैं उनके पांव लगती हूँ।
ਤਿਨ ਹੀ ਜੈਸੀ ਥੀ ਰਹਾ ਸਤਸੰਗਤਿ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਇ ॥੧॥
तिन ही जैसी थी रहा सतसंगति मेलि मिलाइ ॥१॥
मैं उनके सत्संग के मिलन द्वारा उनके जैसी ही हो जाऊँ॥ १॥