HINDI PAGE 4

ਅਸੰਖ ਭਗਤ ਗੁਣ ਗਿਆਨ ਵੀਚਾਰ ॥
असंख भगत गुण गिआन वीचार ॥
असंख्य ऐसे भक्तजन हैं जो उस गुणी निरंकार के गुणों को विचार कर ज्ञान की उपलब्धि करते हैं।

ਅਸੰਖ ਸਤੀ ਅਸੰਖ ਦਾਤਾਰ ॥
असंख सती असंख दातार ॥
असंख्य सत्य को जानने वाले अथवा परमार्थ-पथ पर चलने वाले तथा दानी सज्जन हैं।

ਅਸੰਖ ਸੂਰ ਮੁਹ ਭਖ ਸਾਰ ॥
असंख सूर मुह भख सार ॥
असंख्य शूरवीर रणभूमि में शत्रु का सामना करते हुए शस्त्रों की मार सहते हैं।

ਅਸੰਖ ਮੋਨਿ ਲਿਵ ਲਾਇ ਤਾਰ ॥
असंख मोनि लिव लाइ तार ॥
असंख्य मानव जीव मौन धारण करके एकाग्रचित होकर उस अकाल-पुरुष में लिवलीन रहते हैं।

ਕੁਦਰਤਿ ਕਵਣ ਕਹਾ ਵੀਚਾਰੁ ॥
कुदरति कवण कहा वीचारु ॥
इसलिए मुझ में इतनी बुद्धि कहाँ कि मैं उस अकथनीय प्रभु की समर्था का विचार कर सकूं।

ਵਾਰਿਆ ਨ ਜਾਵਾ ਏਕ ਵਾਰ ॥
वारिआ न जावा एक वार ॥
हे अनन्त स्वरूप ! मैं तुझ पर एक बार भी कुर्बान होने के लायक नहीं हूँ।

ਜੋ ਤੁਧੁ ਭਾਵੈ ਸਾਈ ਭਲੀ ਕਾਰ ॥
जो तुधु भावै साई भली कार ॥
जो तुझे भला लगता है वही कार्य श्रेष्ठ है।

ਤੂ ਸਦਾ ਸਲਾਮਤਿ ਨਿਰੰਕਾਰ ॥੧੭॥
तू सदा सलामति निरंकार ॥१७॥
हे निरंकार ! हे पारब्रह्म ! तू सदा शाश्वत रूप हैं।॥ १७ ॥

ਅਸੰਖ ਮੂਰਖ ਅੰਧ ਘੋਰ ॥
असंख मूरख अंध घोर ॥
इस सृष्टि में असंख्य मनुष्य विमूढ़ तथा गहन अज्ञानी हैं।

ਅਸੰਖ ਚੋਰ ਹਰਾਮਖੋਰ ॥
असंख चोर हरामखोर ॥
असंख्य चोर तथा अभक्ष्य खाने वाले हैं, जो दूसरों का माल चुरा कर खाते हैं।ਅਸੰਖ ਅਮਰ ਕਰਿ ਜਾਹਿ ਜੋਰ॥
असंख अमर करि जाहि जोर ॥असंख्य ही ऐसे हैं जो अन्य लोगों पर जब्र-जुल्म से अत्याचार का शासन करके इस संसार को त्याग जाते हैं।

ਅਸੰਖ ਗਲਵਢ ਹਤਿਆ ਕਮਾਹਿ ॥
असंख गलवढ हतिआ कमाहि ॥
असंख्य अधर्मी मनुष्य जो दूसरों का गला काट कर हत्या का पाप कमा रहे हैं।

ਅਸੰਖ ਪਾਪੀ ਪਾਪੁ ਕਰਿ ਜਾਹਿ ॥
असंख पापी पापु करि जाहि ॥
असंख्य ही पापी इस संसार से पाप करते हुए चले जाते हैं।

ਅਸੰਖ ਕੂੜਿਆਰ ਕੂੜੇ ਫਿਰਾਹਿ ॥
असंख कूड़िआर कूड़े फिराहि ॥
असंख्य ही झूठा स्वभाव रखने वाले मिथ्या वचन बोलते फिरते हैं।

ਅਸੰਖ ਮਲੇਛ ਮਲੁ ਭਖਿ ਖਾਹਿ ॥
असंख मलेछ मलु भखि खाहि ॥
असंख्य मानव ऐसे हैं जो मलिन बुद्धि होने के कारण विष्टा का भोजन खाते हैं।

ਅਸੰਖ ਨਿੰਦਕ ਸਿਰਿ ਕਰਹਿ ਭਾਰੁ ॥
असंख निंदक सिरि करहि भारु ॥
असंख्य लोग दूसरों की निन्दा करके अपने सिर पर पाप का बोझ रखते हैं।

ਨਾਨਕੁ ਨੀਚੁ ਕਹੈ ਵੀਚਾਰੁ ॥
नानकु नीचु कहै वीचारु ॥
श्री गुरु नानक देव जी स्वयं को निम्न कहते हुए फुरमाते हैं कि हमने तो कुकर्मी जीवों अर्थात् तामसी व आसुरी सम्पदा वाली सृष्टि का कथन किया है।

ਵਾਰਿਆ ਨ ਜਾਵਾ ਏਕ ਵਾਰ ॥
वारिआ न जावा एक वार ॥
हे अनन्त स्वरूप ! मैं तुझ पर एक बार भी कुर्बान होने के लायक नहीं हूँ।

ਜੋ ਤੁਧੁ ਭਾਵੈ ਸਾਈ ਭਲੀ ਕਾਰ ॥
जो तुधु भावै साई भली कार ॥
जो तुझे भला लगता है वही कार्य श्रेष्ठ है।

ਤੂ ਸਦਾ ਸਲਾਮਤਿ ਨਿਰੰਕਾਰ ॥੧੮॥
तू सदा सलामति निरंकार ॥१८॥
हे निरंकार ! हे पारब्रह्म ! तू सदा शाश्वत रूप हैं॥ १८॥

ਅਸੰਖ ਨਾਵ ਅਸੰਖ ਥਾਵ ॥
असंख नाव असंख थाव ॥
उस सृजनहार की सृष्टि में असंख्य ही नाम तथा असंख्य ही स्थान वाले जीव विचरन कर रहे हैं; अथवा इस सृष्टि में अकाल-पुरुष के अनेकानेक नाम हैं तथा अनेकानेक ही स्थान हैं, जहाँ पर परमात्मा का वास रहता है।

ਅਗੰਮ ਅਗੰਮ ਅਸੰਖ ਲੋਅ ॥
अगम अगम असंख लोअ ॥
असंख्य ही अकल्पनीय लोक हैं।

ਅਸੰਖ ਕਹਹਿ ਸਿਰਿ ਭਾਰੁ ਹੋਇ ॥
असंख कहहि सिरि भारु होइ ॥
किन्तु जो मनुष्य उसकी रचना का गणित करते हुए ‘असंख्य’ शब्द का प्रयोग करते हैं उनके सिर पर भी भार पड़ता है।

ਅਖਰੀ ਨਾਮੁ ਅਖਰੀ ਸਾਲਾਹ ॥
अखरी नामु अखरी सालाह ॥
शब्दों द्वारा ही उस निरंकार के नाम को जपा जा सकता है, शब्दों से ही उसका गुणगान किया जा सकता है।

ਅਖਰੀ ਗਿਆਨੁ ਗੀਤ ਗੁਣ ਗਾਹ ॥
अखरी गिआनु गीत गुण गाह ॥
परमात्मा के गुणों का ज्ञान भी शब्दों द्वारा हो सकता है तथा उसकी प्रशंसा भी शब्दों द्वारा ही कही जा सकती है।

ਅਖਰੀ ਲਿਖਣੁ ਬੋਲਣੁ ਬਾਣਿ ॥
अखरी लिखणु बोलणु बाणि ॥
शब्दों द्वारा ही उसकी वाणी को लिखा व बोला जा सकता है।

ਅਖਰਾ ਸਿਰਿ ਸੰਜੋਗੁ ਵਖਾਣਿ ॥
अखरा सिरि संजोगु वखाणि ॥
शब्दों द्वारा मस्तिष्क पर लिखे गए कर्मों को बताया जा सकता है।

ਜਿਨਿ ਏਹਿ ਲਿਖੇ ਤਿਸੁ ਸਿਰਿ ਨਾਹਿ ॥
जिनि एहि लिखे तिसु सिरि नाहि ॥
किन्तु जिस निरंकार ने यह कर्म लेख लिखे हैं उसके मस्तिष्क पर कोई कर्म-लेख नहीं है; अर्थात्-उसके कर्मों को न तो कोई कह सकता है और न उनका हिसाब रख सकता है।

ਜਿਵ ਫੁਰਮਾਏ ਤਿਵ ਤਿਵ ਪਾਹਿ ॥
जिव फुरमाए तिव तिव पाहि ॥
अकाल-पुरुष जिस प्रकार मनुष्य के कर्मों के अनुसार आदेश करता है, वैसे ही वह अपने कर्मों को भोगता है।

ਜੇਤਾ ਕੀਤਾ ਤੇਤਾ ਨਾਉ ॥
जेता कीता तेता नाउ ॥
सृजनहार ने इस सृष्टि का जितना प्रसार किया है, वह समस्त नाम-रूप ही है।

ਵਿਣੁ ਨਾਵੈ ਨਾਹੀ ਕੋ ਥਾਉ ॥
विणु नावै नाही को थाउ ॥
कोई भी स्थान उसके नाम से रिक्त नहीं है।

ਕੁਦਰਤਿ ਕਵਣ ਕਹਾ ਵੀਚਾਰੁ ॥
कुदरति कवण कहा वीचारु ॥
इसलिए मुझ में इतनी बुद्धि कहाँ कि मैं उस अकथनीय प्रभु की समर्था का विचार कर सकूं।

ਵਾਰਿਆ ਨ ਜਾਵਾ ਏਕ ਵਾਰ ॥
वारिआ न जावा एक वार ॥
हे अनन्त स्वरूप ! मैं तुझ पर एक बार भी क़ुर्बान होने के लायक नहीं हूँ।

ਜੋ ਤੁਧੁ ਭਾਵੈ ਸਾਈ ਭਲੀ ਕਾਰ ॥
जो तुधु भावै साई भली कार ॥
जो तुझे भला लगता है वही कार्य श्रेष्ठ है।

ਤੂ ਸਦਾ ਸਲਾਮਤਿ ਨਿਰੰਕਾਰ ॥੧੯॥
तू सदा सलामति निरंकार ॥१९॥
हे निरंकार ! हे पारब्रह्म ! तू सदा शाश्वत रूप हैं।॥ १९ ॥

ਭਰੀਐ ਹਥੁ ਪੈਰੁ ਤਨੁ ਦੇਹ ॥
भरीऐ हथु पैरु तनु देह ॥
यदि यह शरीर, हाथ-पैर अथवा कोई अन्य अंग मलिन हो जाए

ਪਾਣੀ ਧੋਤੈ ਉਤਰਸੁ ਖੇਹ ॥
पाणी धोतै उतरसु खेह ॥
तो पानी से धो लेने से उसकी गन्दगी व मिट्टी साफ हो जाती है।

ਮੂਤ ਪਲੀਤੀ ਕਪੜੁ ਹੋਇ ॥
मूत पलीती कपड़ु होइ ॥
यदि कोई वस्त्र पेशाब आदि से अपवित्र हो जाए

ਦੇ ਸਾਬੂਣੁ ਲਈਐ ਓਹੁ ਧੋਇ ॥
दे साबूणु लईऐ ओहु धोइ ॥
तो उसे साबुन के साथ धो लिया जाता है।

ਭਰੀਐ ਮਤਿ ਪਾਪਾ ਕੈ ਸੰਗਿ ॥
भरीऐ मति पापा कै संगि ॥
यदि मनुष्य की बुद्धि दुष्कर्मों के करने से मलिन हो जाए

ਓਹੁ ਧੋਪੈ ਨਾਵੈ ਕੈ ਰੰਗਿ ॥
ओहु धोपै नावै कै रंगि ॥
तो वह वाहेगुरु के नाम का सिमरन करने से ही पवित्र हो सकती है।

ਪੁੰਨੀ ਪਾਪੀ ਆਖਣੁ ਨਾਹਿ ॥
पुंनी पापी आखणु नाहि ॥
पुण्य और पाप मात्र कहने को ही नहीं हैं।

ਕਰਿ ਕਰਿ ਕਰਣਾ ਲਿਖਿ ਲੈ ਜਾਹੁ ॥
करि करि करणा लिखि लै जाहु ॥
अपितु इस संसार में रहकर जैसे-जैसे कर्म किए जाएँगे वही धर्मराज द्वारा भेजे गए चित्र-गुप्त लिख कर ले जाएँगे ; अर्थात् मानव जीव द्वारा इस धरती पर किए जाने वाले प्रत्येक अच्छे व बुरे कर्मो का हिसाब उसके साथ ही जाएगा, जिसके फलानुसार उसे स्वर्ग अथवा नरक की प्राप्ति होगी।

ਆਪੇ ਬੀਜਿ ਆਪੇ ਹੀ ਖਾਹੁ ॥
आपे बीजि आपे ही खाहु ॥
सो मनुष्य स्वयं ही कर्म बीज बीजता है और स्वयं ही उसका फल प्राप्त करता है।

ਨਾਨਕ ਹੁਕਮੀ ਆਵਹੁ ਜਾਹੁ ॥੨੦॥
नानक हुकमी आवहु जाहु ॥२०॥
गुरु नानक का कथन है कि जीव इस संसार में अपने कर्मो का फल भोगने हेतु अकाल-पुरुष के आदेश से आता जाता रहेगा ; अर्थात् जीव के कर्म उसे आवागमन के चक्र में ही रखेंगे, निरंकार जीव के कर्मों के अनुसार ही उसके फल की आज्ञा करेगा II २० II

ਤੀਰਥੁ ਤਪੁ ਦਇਆ ਦਤੁ ਦਾਨੁ ॥
तीरथु तपु दइआ दतु दानु ॥
तीर्थ-यात्रा, तप-साधना, जीवों पर दया-भाव करके तथा नि:स्वार्थ दान देने से

ਜੇ ਕੋ ਪਾਵੈ ਤਿਲ ਕਾ ਮਾਨੁ ॥
जे को पावै तिल का मानु ॥
यदि कोई मनुष्य सम्मान प्राप्त करता है तो वह अति लघु होता है।

ਸੁਣਿਆ ਮੰਨਿਆ ਮਨਿ ਕੀਤਾ ਭਾਉ ॥
सुणिआ मंनिआ मनि कीता भाउ ॥
किन्तु जिन्होंने परमेश्वर के नाम को मन में प्रीत करके सुना व उसका निरन्तर चिन्तन किया है।

ਅੰਤਰਗਤਿ ਤੀਰਥਿ ਮਲਿ ਨਾਉ ॥
अंतरगति तीरथि मलि नाउ ॥
उन्होंने अपने अंतर के तीर्थ का मानो स्नान कर लिया और अपनी मलिनता को दूर कर लिया। (अर्थात् उस जीव ने अपने ह्रदय में बसे हुए निरंकार में लीन होकर अपनी अन्तरात्मा की मैल को साफ कर लिया है।)

ਸਭਿ ਗੁਣ ਤੇਰੇ ਮੈ ਨਾਹੀ ਕੋਇ ॥
सभि गुण तेरे मै नाही कोइ ॥
हे सर्गुण स्वरूप ! समस्त गुण आप में हैं, मुझ में शुभ-गुण कोई भी नहीं है।

ਵਿਣੁ ਗੁਣ ਕੀਤੇ ਭਗਤਿ ਨ ਹੋਇ ॥
विणु गुण कीते भगति न होइ ॥
सदाचार के गुणों को धारण किए बिना परमेश्वर की भक्ति भी नहीं हो सकती।

ਸੁਅਸਤਿ ਆਥਿ ਬਾਣੀ ਬਰਮਾਉ ॥
सुअसति आथि बाणी बरमाउ ॥
हे निरंकार ! तुम्हारी सदा जय हो, तुम कल्याण स्वरूप हो, ब्रह्म रूप हो।

ਸਤਿ ਸੁਹਾਣੁ ਸਦਾ ਮਨਿ ਚਾਉ ॥
सति सुहाणु सदा मनि चाउ ॥
तुम सत्य हो, चेतन्य हो और सदैव आनन्द स्वरूप हो।

ਕਵਣੁ ਸੁ ਵੇਲਾ ਵਖਤੁ ਕਵਣੁ ਕਵਣ ਥਿਤਿ ਕਵਣੁ ਵਾਰੁ ॥
कवणु सु वेला वखतु कवणु कवण थिति कवणु वारु ॥
परमात्मा ने यह सृष्टि जब पैदा की थी तब कौन-सा समय, कौन-सा वक्त, कौन-सी तारीख, तथा कौन-सा दिन था।

ਕਵਣਿ ਸਿ ਰੁਤੀ ਮਾਹੁ ਕਵਣੁ ਜਿਤੁ ਹੋਆ ਆਕਾਰੁ ॥
कवणि सि रुती माहु कवणु जितु होआ आकारु ॥
तब कौन-सी ऋतु, कौन-सा महीना था, जब यह प्रसार हुआ था, यह सब कौन जानता है।

ਵੇਲ ਨ ਪਾਈਆ ਪੰਡਤੀ ਜਿ ਹੋਵੈ ਲੇਖੁ ਪੁਰਾਣੁ ॥
वेल न पाईआ पंडती जि होवै लेखु पुराणु ॥
सृष्टि के प्रसार का निश्चित समय महा विद्वान, ऋषि-मुनि आदि भी नहीं जान पाए, यदि वे जान पाते तो निश्चय ही उन्होंने वेदों अथवा धर्म-ग्रन्थों में इसका उल्लेख किया होता।

ਵਖਤੁ ਨ ਪਾਇਓ ਕਾਦੀਆ ਜਿ ਲਿਖਨਿ ਲੇਖੁ ਕੁਰਾਣੁ ॥
वखतु न पाइओ कादीआ जि लिखनि लेखु कुराणु ॥
इस समय का ज्ञान तो काजियों को भी नहीं हो पाया, यदि उन्हें पता होता तो वे कुरान आदि में इसका उल्लेख अवश्य करते।

ਥਿਤਿ ਵਾਰੁ ਨਾ ਜੋਗੀ ਜਾਣੈ ਰੁਤਿ ਮਾਹੁ ਨਾ ਕੋਈ ॥
थिति वारु ना जोगी जाणै रुति माहु ना कोई ॥
इस सृष्टि की रचना का दिन, वार, ऋतु व महीना आदि कोई योगी भी नहीं जान पाया है।

ਜਾ ਕਰਤਾ ਸਿਰਠੀ ਕਉ ਸਾਜੇ ਆਪੇ ਜਾਣੈ ਸੋਈ ॥
जा करता सिरठी कउ साजे आपे जाणै सोई ॥
इसके बारे में तो जो इस जगत् का रचयिता है वह स्वयं ही जान सकता है कि इस सृष्टि का प्रसार कब किया गया।

ਕਿਵ ਕਰਿ ਆਖਾ ਕਿਵ ਸਾਲਾਹੀ ਕਿਉ ਵਰਨੀ ਕਿਵ ਜਾਣਾ ॥
किव करि आखा किव सालाही किउ वरनी किव जाणा ॥
मैं किस प्रकार उस अकाल पुरुष के कौतुक को कहूँ, कैसे उसकी प्रशंसा करूँ, किस प्रकार वर्णन करूँ और कैसे उसके भेद को जान सकता हूँ ?

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