ਸੇਵਾ ਸੁਰਤਿ ਸਬਦਿ ਚਿਤੁ ਲਾਏ ॥
सेवा सुरति सबदि चितु लाए ॥
फिर वह व्यक्ति अपनी सुरति प्रभु की सेवा में लगाता और अपना मन शब्द में जोड़ता है।
ਹਉਮੈ ਮਾਰਿ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ਮਾਇਆ ਮੋਹੁ ਚੁਕਾਵਣਿਆ ॥੧॥
हउमै मारि सदा सुखु पाइआ माइआ मोहु चुकावणिआ ॥१॥
वह अपने अहंकार को त्याग कर सदैव सुख पाता है और अपने माया के मोह को मिटा देता है॥ १॥
ਹਉ ਵਾਰੀ ਜੀਉ ਵਾਰੀ ਸਤਿਗੁਰ ਕੈ ਬਲਿਹਾਰਣਿਆ ॥
हउ वारी जीउ वारी सतिगुर कै बलिहारणिआ ॥
मैं अपने सतिगुरु पर तन एवं मन से न्यौछावर हूँ,
ਗੁਰਮਤੀ ਪਰਗਾਸੁ ਹੋਆ ਜੀ ਅਨਦਿਨੁ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਵਣਿਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
गुरमती परगासु होआ जी अनदिनु हरि गुण गावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥
क्योंकि गुरु की मति द्वारा उसके हृदय में प्रभु ज्योति का प्रकाश हो जाता है। वह व्यक्ति प्रतिदिन भगवान की महिमा -स्तुति करता रहता है॥ १॥ रहाउ॥
ਤਨੁ ਮਨੁ ਖੋਜੇ ਤਾ ਨਾਉ ਪਾਏ ॥
तनु मनु खोजे ता नाउ पाए ॥
जब मनुष्य अपने तन एवं मन में ही उसकी खोज करता है तो उसे ईश्वर का नाम प्राप्त हो जाता है।
ਧਾਵਤੁ ਰਾਖੈ ਠਾਕਿ ਰਹਾਏ ॥
धावतु राखै ठाकि रहाए ॥
वह अपने भटकते मन को स्थिर करता है और इसको अपने वश में रखता है।
ਗੁਰ ਕੀ ਬਾਣੀ ਅਨਦਿਨੁ ਗਾਵੈ ਸਹਜੇ ਭਗਤਿ ਕਰਾਵਣਿਆ ॥੨॥
गुर की बाणी अनदिनु गावै सहजे भगति करावणिआ ॥२॥
वह रात-दिन गुरु की वाणी गायन करता है और सहज ही प्रभु की भक्ति में जुट जाता है॥ २॥
ਇਸੁ ਕਾਇਆ ਅੰਦਰਿ ਵਸਤੁ ਅਸੰਖਾ ॥
इसु काइआ अंदरि वसतु असंखा ॥
इस शरीर में विद्यमान अनंत गुणों वाली नाम रूपी वस्तु जब किसी को मिल जाती है
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਾਚੁ ਮਿਲੈ ਤਾ ਵੇਖਾ ॥
गुरमुखि साचु मिलै ता वेखा ॥
तो वह सत्य प्रभु के दर्शन करता है।
ਨਉ ਦਰਵਾਜੇ ਦਸਵੈ ਮੁਕਤਾ ਅਨਹਦ ਸਬਦੁ ਵਜਾਵਣਿਆ ॥੩॥
नउ दरवाजे दसवै मुकता अनहद सबदु वजावणिआ ॥३॥
शरीर रूपी घर को आँखें, कान, नाक, मुँह इत्यादि नौ द्वार लगे हुए है। इन दरवाजों द्वारा मन बाहर भटकता रहता है। जब वह विकारों एवं मोह-माया से मुक्त होकर निर्मल हो जाता है तो वह दसम द्वार में आ जाता है। फिर निर्मल मन में अनहद शब्द बजने लगता है॥ ३ ॥
ਸਚਾ ਸਾਹਿਬੁ ਸਚੀ ਨਾਈ ॥
सचा साहिबु सची नाई ॥
परमात्मा सदैव सत्य है एवं उसकी महिमा भी सत्य है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਮੰਨਿ ਵਸਾਈ ॥
गुर परसादी मंनि वसाई ॥
गुरु की कृपा से ही परमात्मा मन में आकर निवास करता है।
ਅਨਦਿਨੁ ਸਦਾ ਰਹੈ ਰੰਗਿ ਰਾਤਾ ਦਰਿ ਸਚੈ ਸੋਝੀ ਪਾਵਣਿਆ ॥੪॥
अनदिनु सदा रहै रंगि राता दरि सचै सोझी पावणिआ ॥४॥
फिर व्यक्ति दिन-रात परमात्मा के प्रेम में मग्न रहता है और उसे सत्य दरबार की सूझ हो जाती है॥ ४॥
ਪਾਪ ਪੁੰਨ ਕੀ ਸਾਰ ਨ ਜਾਣੀ ॥
पाप पुंन की सार न जाणी ॥
मनमुख प्राणी को पाप एवं पुण्य की पहचान नहीं होती।
ਦੂਜੈ ਲਾਗੀ ਭਰਮਿ ਭੁਲਾਣੀ ॥
दूजै लागी भरमि भुलाणी ॥
उसकी बुद्धि मोह-माया में मग्न हो जाती है, जिससे वह भ्रम में फँसकर भटकती रहती है।
ਅਗਿਆਨੀ ਅੰਧਾ ਮਗੁ ਨ ਜਾਣੈ ਫਿਰਿ ਫਿਰਿ ਆਵਣ ਜਾਵਣਿਆ ॥੫॥
अगिआनी अंधा मगु न जाणै फिरि फिरि आवण जावणिआ ॥५॥
मोह-माया में ज्ञानहीन मनमुख भगवान के मिलन के मार्ग को नहीं जानता, जिसके कारण वह बार-बार जन्मता एवं मरता रहता है।॥ ५ ॥
ਗੁਰ ਸੇਵਾ ਤੇ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ॥
गुर सेवा ते सदा सुखु पाइआ ॥
गुरमुख गुरु की सेवा करके सदैव ही सुख प्राप्त करते हैं।
ਹਉਮੈ ਮੇਰਾ ਠਾਕਿ ਰਹਾਇਆ ॥
हउमै मेरा ठाकि रहाइआ ॥
वह अहंकार को नष्ट करके अपने भटकते हुए मन को विकारों की तरफ जाने से वर्जित करते हैं।
ਗੁਰ ਸਾਖੀ ਮਿਟਿਆ ਅੰਧਿਆਰਾ ਬਜਰ ਕਪਾਟ ਖੁਲਾਵਣਿਆ ॥੬॥
गुर साखी मिटिआ अंधिआरा बजर कपाट खुलावणिआ ॥६॥
गुरु की शिक्षा से उनका अज्ञानता का अँधेरा मिट जाता है और वज कपाट खुल जाते हैं।॥६॥
ਹਉਮੈ ਮਾਰਿ ਮੰਨਿ ਵਸਾਇਆ ॥
हउमै मारि मंनि वसाइआ ॥
वह अपना अहंकार मिटाकर भगवान को अपने मन में बसा लेते हैं।
ਗੁਰ ਚਰਣੀ ਸਦਾ ਚਿਤੁ ਲਾਇਆ ॥
गुर चरणी सदा चितु लाइआ ॥
फिर वह अपना चित्त सदैव ही गुरु के चरणों में लगाकर रखते हैं।
ਗੁਰ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਮਨੁ ਤਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਨਿਰਮਲ ਨਾਮੁ ਧਿਆਵਣਿਆ ॥੭॥
गुर किरपा ते मनु तनु निरमलु निरमल नामु धिआवणिआ ॥७॥
गुरु की कृपा से उनका मन एवं तन निर्मल हो। जाता है। फिर वह भगवान के निर्मल नाम का सिमरन करते रहते हैं।॥ ७॥
ਜੀਵਣੁ ਮਰਣਾ ਸਭੁ ਤੁਧੈ ਤਾਈ ॥
जीवणु मरणा सभु तुधै ताई ॥
हे प्रभु ! जीवों का जन्म एवं मृत्यु सब कुछ तुझ पर निर्भर है
ਜਿਸੁ ਬਖਸੇ ਤਿਸੁ ਦੇ ਵਡਿਆਈ ॥
जिसु बखसे तिसु दे वडिआई ॥
और हे प्रभु ! आप उसे महानता प्रदान करते हैं, जिसे तुम क्षमा कर देते हो।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇ ਸਦਾ ਤੂੰ ਜੰਮਣੁ ਮਰਣੁ ਸਵਾਰਣਿਆ ॥੮॥੧॥੨॥
नानक नामु धिआइ सदा तूं जमणु मरणु सवारणिआ ॥८॥१॥२॥
हे नानक ! तू सदैव ही परमेश्वर के नाम का भजन कर, जो मनुष्य के जन्म और मृत्यु को संवार देता है॥ ८ ॥ १ ॥ २ ॥
ਮਾਝ ਮਹਲਾ ੩ ॥
माझ महला ३ ॥
माझ महला ३ ॥
ਮੇਰਾ ਪ੍ਰਭੁ ਨਿਰਮਲੁ ਅਗਮ ਅਪਾਰਾ ॥
मेरा प्रभु निरमलु अगम अपारा ॥
मेरा निर्मल प्रभु अगम्य एवं अपार है।
ਨੁ ਤਕੜੀ ਤੋਲੈ ਸੰਸਾਰਾ ॥
बिनु तकड़ी तोलै संसारा ॥
वह तराजु के बिना जगत् को तोलता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹੋਵੈ ਸੋਈ ਬੂਝੈ ਗੁਣ ਕਹਿ ਗੁਣੀ ਸਮਾਵਣਿਆ ॥੧॥
गुरमुखि होवै सोई बूझै गुण कहि गुणी समावणिआ ॥१॥
इस तथ्य को वहीं व्यक्ति समझता है, जो गुरु के सान्निध्य में रहता है। वह प्रभु के गुणों को कह-कह कर उसी में विलीन हो जाता है ॥१॥
ਹਉ ਵਾਰੀ ਜੀਉ ਵਾਰੀ ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਮੰਨਿ ਵਸਾਵਣਿਆ ॥
हउ वारी जीउ वारी हरि का नामु मंनि वसावणिआ ॥
जो व्यक्ति भगवान के नाम को अपने हृदय में बसाते हैं। मेरा तन-मन उन पर न्योछावर है।
ਜੋ ਸਚਿ ਲਾਗੇ ਸੇ ਅਨਦਿਨੁ ਜਾਗੇ ਦਰਿ ਸਚੈ ਸੋਭਾ ਪਾਵਣਿਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जो सचि लागे से अनदिनु जागे दरि सचै सोभा पावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥
जो व्यक्ति सत्य प्रभु के नाम-सिमरन में मग्न हैं, वह रात-दिन जागृत रहते है और सत्य दरबार में बड़ी शोभा पाते हैं।॥१॥ रहाउ॥
ਆਪਿ ਸੁਣੈ ਤੈ ਆਪੇ ਵੇਖੈ ॥
आपि सुणै तै आपे वेखै ॥
हे प्रभु ! तू स्वयं ही समस्त जीवों की प्रार्थना सुनता है और स्वयं ही उन्हें देखता रहता है।
ਜਿਸ ਨੋ ਨਦਰਿ ਕਰੇ ਸੋਈ ਜਨੁ ਲੇਖੈ ॥
जिस नो नदरि करे सोई जनु लेखै ॥
जिस पर प्रभु अपनी कृपा-दृष्टि करता है, वह व्यक्ति प्रभु के दरबार में स्वीकृत हो जाता है।
ਆਪੇ ਲਾਇ ਲਏ ਸੋ ਲਾਗੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਚੁ ਕਮਾਵਣਿਆ ॥੨॥
आपे लाइ लए सो लागै गुरमुखि सचु कमावणिआ ॥२॥
जिसे प्रभु स्वयं ही अपने सिमरन में लगाता है, वहीं व्यक्ति उसके सिमरन में लगता है। गुरमुख ही सत्य नाम की साधना करते हैं।॥२॥
ਜਿਸੁ ਆਪਿ ਭੁਲਾਏ ਸੁ ਕਿਥੈ ਹਥੁ ਪਾਏ ॥
जिसु आपि भुलाए सु किथै हथु पाए ॥
वह किस का आश्रय ले सकता है, जिसको प्रभु स्वयं गुमराह करता है?
ਪੂਰਬਿ ਲਿਖਿਆ ਸੁ ਮੇਟਣਾ ਨ ਜਾਏ ॥
पूरबि लिखिआ सु मेटणा न जाए ॥
विधाता के विधान को मिटाया नहीं जा सकता अर्थात् पूर्व जन्म का लिखा लेख मिटाया नहीं जाता।
ਜਿਨ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮਿਲਿਆ ਸੇ ਵਡਭਾਗੀ ਪੂਰੈ ਕਰਮਿ ਮਿਲਾਵਣਿਆ ॥੩॥
जिन सतिगुरु मिलिआ से वडभागी पूरै करमि मिलावणिआ ॥३॥
वह व्यक्ति बड़े भाग्यशाली हैं, जिन्हें सतिगुरु मिले हैं। पूर्ण भाग्य से ही सतिगुरु जी मिलते हैं।॥३॥
ਪੇਈਅੜੈ ਧਨ ਅਨਦਿਨੁ ਸੁਤੀ ॥
पेईअड़ै धन अनदिनु सुती ॥
जीव-स्त्री अपने पीहर (इहलोक) में दिन-रात अज्ञानता में निंद्रामग्न रहती है।
ਕੰਤਿ ਵਿਸਾਰੀ ਅਵਗਣਿ ਮੁਤੀ ॥
कंति विसारी अवगणि मुती ॥
उसके पति-प्रभु ने उसे विस्मृत कर दिया है और अवगुणों के कारण वह त्याग दी गई है।
ਅਨਦਿਨੁ ਸਦਾ ਫਿਰੈ ਬਿਲਲਾਦੀ ਬਿਨੁ ਪਿਰ ਨੀਦ ਨ ਪਾਵਣਿਆ ॥੪॥
अनदिनु सदा फिरै बिललादी बिनु पिर नीद न पावणिआ ॥४॥
वह रात-दिन सदैव ही विलाप करती रहती है। अपने पति-प्रभु के बिना उसको सुख की निद्रा नहीं आती ॥ ४॥
ਪੇਈਅੜੈ ਸੁਖਦਾਤਾ ਜਾਤਾ ॥
पेईअड़ै सुखदाता जाता ॥
गुरमुख जीव-स्त्री ने अपने पीहर (इहलोक) में सुखदाता पति-प्रभु को जान लिया है।
ਹਉਮੈ ਮਾਰਿ ਗੁਰ ਸਬਦਿ ਪਛਾਤਾ ॥
हउमै मारि गुर सबदि पछाता ॥
उसने अपना अहंकार त्याग कर गुरु के शब्द द्वारा अपने पति-प्रभु को पहचान लिया है।
ਸੇਜ ਸੁਹਾਵੀ ਸਦਾ ਪਿਰੁ ਰਾਵੇ ਸਚੁ ਸੀਗਾਰੁ ਬਣਾਵਣਿਆ ॥੫॥
सेज सुहावी सदा पिरु रावे सचु सीगारु बणावणिआ ॥५॥
वह सदैव ही सुन्दर शय्या पर शयन करती है और पति-प्रभु के साथ रमण करती है। ऐसी जीव-स्त्री प्रभु के सत्य-नाम को अपना श्रृंगार बनाती है॥५॥