Hindi Page 508

ਜਿਉ ਬੋਲਾਵਹਿ ਤਿਉ ਬੋਲਹ ਸੁਆਮੀ ਕੁਦਰਤਿ ਕਵਨ ਹਮਾਰੀ ॥
जिउ बोलावहि तिउ बोलह सुआमी कुदरति कवन हमारी ॥
हे स्वामी ! जैसे तुम बुलाते हो, वैसे ही हम बोलते हैं, अन्यथा हमारी क्या समर्था है कि हम कुछ बोल सकें ?

ਸਾਧਸੰਗਿ ਨਾਨਕ ਜਸੁ ਗਾਇਓ ਜੋ ਪ੍ਰਭ ਕੀ ਅਤਿ ਪਿਆਰੀ ॥੮॥੧॥੮॥
साधसंगि नानक जसु गाइओ जो प्रभ की अति पिआरी ॥८॥१॥८॥
सत्संगति में नानक ने वही यशोगान किया है, जो प्रभु को अत्यंत प्यारा है। ॥८॥१॥८॥

ਗੂਜਰੀ ਮਹਲਾ ੫ ਘਰੁ ੪
गूजरी महला ५ घरु ४
गूजरी महला ५ घरु ४

ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।

ਨਾਥ ਨਰਹਰ ਦੀਨ ਬੰਧਵ ਪਤਿਤ ਪਾਵਨ ਦੇਵ ॥
नाथ नरहर दीन बंधव पतित पावन देव ॥
हे नाथ ! हे नरहरि (नृसिंह)! हे दीनबंधु! हे पतितपावन देव !

ਭੈ ਤ੍ਰਾਸ ਨਾਸ ਕ੍ਰਿਪਾਲ ਗੁਣ ਨਿਧਿ ਸਫਲ ਸੁਆਮੀ ਸੇਵ ॥੧॥
भै त्रास नास क्रिपाल गुण निधि सफल सुआमी सेव ॥१॥
हे भयनाशक ! हे कृपालु स्वामी ! हे गुणों के भण्डार ! तेरी सेवा-भक्ति बड़ी फलदायक है॥ १॥

ਹਰਿ ਗੋਪਾਲ ਗੁਰ ਗੋਬਿੰਦ ॥
हरि गोपाल गुर गोबिंद ॥
हे हरि ! हे गोपाल ! हे गुर गोबिन्द !

ਚਰਣ ਸਰਣ ਦਇਆਲ ਕੇਸਵ ਤਾਰਿ ਜਗ ਭਵ ਸਿੰਧ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
चरण सरण दइआल केसव तारि जग भव सिंध ॥१॥ रहाउ ॥
मैंने तेरे सुन्दर चरणों की शरण ली है। हे दयालु केशव ! मुझे भयानक संसार-सागर से पार कर दो ॥ १॥ रहाउ॥

ਕਾਮ ਕ੍ਰੋਧ ਹਰਨ ਮਦ ਮੋਹ ਦਹਨ ਮੁਰਾਰਿ ਮਨ ਮਕਰੰਦ ॥
काम क्रोध हरन मद मोह दहन मुरारि मन मकरंद ॥
हे काम-क्रोध का नाश करने वाले ! हे मोह के नशे का दहन करने वाले मुरारि ! हे मन के मकरंद !

ਜਨਮ ਮਰਣ ਨਿਵਾਰਿ ਧਰਣੀਧਰ ਪਤਿ ਰਾਖੁ ਪਰਮਾਨੰਦ ॥੨॥
जनम मरण निवारि धरणीधर पति राखु परमानंद ॥२॥
हे धरणिधर! हे परमानंद ! मेरा जन्म-मरण का चक्र मिटाकर मेरी लाज रखें।॥ २॥

ਜਲਤ ਅਨਿਕ ਤਰੰਗ ਮਾਇਆ ਗੁਰ ਗਿਆਨ ਹਰਿ ਰਿਦ ਮੰਤ ॥
जलत अनिक तरंग माइआ गुर गिआन हरि रिद मंत ॥
हे हरि ! माया-अग्नि की अनेक तरंगों में जलते हुए प्राणी के हृदय में गुरु-ज्ञान का मंत्र प्रदान करो।

ਛੇਦਿ ਅਹੰਬੁਧਿ ਕਰੁਣਾ ਮੈ ਚਿੰਤ ਮੇਟਿ ਪੁਰਖ ਅਨੰਤ ॥੩॥
छेदि अह्मबुधि करुणा मै चिंत मेटि पुरख अनंत ॥३॥
हे करुणामय प्रभु ! हे अनंत अकालपुरुष ! मेरी अहंबुद्धि का छेदन करके मेरी चिंता मिटा दो ॥ ३॥

ਸਿਮਰਿ ਸਮਰਥ ਪਲ ਮਹੂਰਤ ਪ੍ਰਭ ਧਿਆਨੁ ਸਹਜ ਸਮਾਧਿ ॥
सिमरि समरथ पल महूरत प्रभ धिआनु सहज समाधि ॥
हे प्राणी ! हर पल एवं मुहूर्त तू समर्थ प्रभु का सिमरन कर और उसके ध्यान में सहज समाधि लगा।

ਦੀਨ ਦਇਆਲ ਪ੍ਰਸੰਨ ਪੂਰਨ ਜਾਚੀਐ ਰਜ ਸਾਧ ॥੪॥
दीन दइआल प्रसंन पूरन जाचीऐ रज साध ॥४॥
हे दीनदयालु ! हे पूर्ण प्रसन्न स्वामी ! मैं तुझ से साधुओं की चरण-धूलि माँगता हूँ ॥४॥

ਮੋਹ ਮਿਥਨ ਦੁਰੰਤ ਆਸਾ ਬਾਸਨਾ ਬਿਕਾਰ ॥
मोह मिथन दुरंत आसा बासना बिकार ॥
हे निरंकार हरि ! मिथ्या मोह, दुखदायक आशा, वासना एवं विकारों से मेरा धर्म बचा लीजिए तथा

ਰਖੁ ਧਰਮ ਭਰਮ ਬਿਦਾਰਿ ਮਨ ਤੇ ਉਧਰੁ ਹਰਿ ਨਿਰੰਕਾਰ ॥੫॥
रखु धरम भरम बिदारि मन ते उधरु हरि निरंकार ॥५॥
मेरे हृदय से भ्रम को दूर करके मेरा उद्धार कीजिए॥ ५ ॥

ਧਨਾਢਿ ਆਢਿ ਭੰਡਾਰ ਹਰਿ ਨਿਧਿ ਹੋਤ ਜਿਨਾ ਨ ਚੀਰ ॥
धनाढि आढि भंडार हरि निधि होत जिना न चीर ॥
हे हरि ! जिनके पास वस्त्र मात्र भी नहीं, वह तेरी नाम-निधि प्राप्त करके धनवान एवं खजाने से भरपूर हो जाते हैं।

ਖਲ ਮੁਗਧ ਮੂੜ ਕਟਾਖੵ ਸ੍ਰੀਧਰ ਭਏ ਗੁਣ ਮਤਿ ਧੀਰ ॥੬॥
खल मुगध मूड़ कटाख्य स्रीधर भए गुण मति धीर ॥६॥
हे श्रीधर ! तेरी दयादृष्टि से महामूर्ख, दुर्जन एवं मूड़ भी गुणवान, बुद्धिमान एवं धैर्यवान बन जाते हैं।॥ ६॥

ਜੀਵਨ ਮੁਕਤ ਜਗਦੀਸ ਜਪਿ ਮਨ ਧਾਰਿ ਰਿਦ ਪਰਤੀਤਿ ॥
जीवन मुकत जगदीस जपि मन धारि रिद परतीति ॥
हे मन ! जीवन से मुक्ति देने वाले जगदीश की आराधना कर और अपने हृदय में उसकी प्रीति धारण कर।

ਜੀਅ ਦਇਆ ਮਇਆ ਸਰਬਤ੍ਰ ਰਮਣੰ ਪਰਮ ਹੰਸਹ ਰੀਤਿ ॥੭॥
जीअ दइआ मइआ सरबत्र रमणं परम हंसह रीति ॥७॥
जीवों पर दया एवं स्नेह करना तथा प्रभु को सर्वव्यापक अनुभव करना परमहंसों (गुरुमुखों) की जीवन-युक्ति है॥ ७॥

ਦੇਤ ਦਰਸਨੁ ਸ੍ਰਵਨ ਹਰਿ ਜਸੁ ਰਸਨ ਨਾਮ ਉਚਾਰ ॥
देत दरसनु स्रवन हरि जसु रसन नाम उचार ॥
ईश्वर उन्हें ही अपने दर्शन देता है, जो उसका यश सुनते हैं और अपनी जिह्म से उसका नाम उच्चरित करते हैं।

ਅੰਗ ਸੰਗ ਭਗਵਾਨ ਪਰਸਨ ਪ੍ਰਭ ਨਾਨਕ ਪਤਿਤ ਉਧਾਰ ॥੮॥੧॥੨॥੫॥੧॥੧॥੨॥੫੭॥
अंग संग भगवान परसन प्रभ नानक पतित उधार ॥८॥१॥२॥५॥१॥१॥२॥५७॥
वह भगवान को आस-पास समझ कर उसकी पूजा करते हैं। हे नानक ! प्रभु पतितों का भी उद्धार कर देता है ॥८॥१॥२॥५॥१॥१॥२॥५७॥

ਗੂਜਰੀ ਕੀ ਵਾਰ ਮਹਲਾ ੩ ਸਿਕੰਦਰ ਬਿਰਾਹਿਮ ਕੀ ਵਾਰ ਕੀ ਧੁਨੀ ਗਾਉਣੀ
गूजरी की वार महला ३ सिकंदर बिराहिम की वार की धुनी गाउणी
गूजरी की वार महला ३ सिकंदर बिराहिम की वार की धुनी गाउणी

ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।

ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक महला ३॥

ਇਹੁ ਜਗਤੁ ਮਮਤਾ ਮੁਆ ਜੀਵਣ ਕੀ ਬਿਧਿ ਨਾਹਿ ॥
इहु जगतु ममता मुआ जीवण की बिधि नाहि ॥
यह जगत ममता में फँसकर मर रहा है और इसे जीने की विधि का कोई ज्ञान नहीं।

ਗੁਰ ਕੈ ਭਾਣੈ ਜੋ ਚਲੈ ਤਾਂ ਜੀਵਣ ਪਦਵੀ ਪਾਹਿ ॥
गुर कै भाणै जो चलै तां जीवण पदवी पाहि ॥
जो व्यक्ति गुरु की रज़ा अनुसार आचरण करता है, उसे जीवन पदवी की उपलिब्ध होती है।

ਓਇ ਸਦਾ ਸਦਾ ਜਨ ਜੀਵਤੇ ਜੋ ਹਰਿ ਚਰਣੀ ਚਿਤੁ ਲਾਹਿ ॥
ओइ सदा सदा जन जीवते जो हरि चरणी चितु लाहि ॥
जो प्राणी हरि के चरणों में अपना चित्त लगाते हैं, वे सदैव जीवित रहते हैं।

ਨਾਨਕ ਨਦਰੀ ਮਨਿ ਵਸੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਹਜਿ ਸਮਾਹਿ ॥੧॥
नानक नदरी मनि वसै गुरमुखि सहजि समाहि ॥१॥
हे नानक ! अपनी करुणा-दृष्टि से प्रभु मन में निवास करता है तथा गुरुमुख सहज ही समा जाता है॥ १॥

ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥

ਅੰਦਰਿ ਸਹਸਾ ਦੁਖੁ ਹੈ ਆਪੈ ਸਿਰਿ ਧੰਧੈ ਮਾਰ ॥
अंदरि सहसा दुखु है आपै सिरि धंधै मार ॥
जिन लोगों के मन में दुविधा एवं मोह-माया का दुख है, उन्होंने खुद ही दुनिया की उलझनों के साथ निपटना स्वीकार किया है।

ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਸੁਤੇ ਕਬਹਿ ਨ ਜਾਗਹਿ ਮਾਇਆ ਮੋਹ ਪਿਆਰ ॥
दूजै भाइ सुते कबहि न जागहि माइआ मोह पिआर ॥
वे द्वैतभाव में सोए हुए कभी भी नहीं जागते, क्योंकि उनका माया से मोह एवं प्रेम बना हुआ है।

ਨਾਮੁ ਨ ਚੇਤਹਿ ਸਬਦੁ ਨ ਵੀਚਾਰਹਿ ਇਹੁ ਮਨਮੁਖ ਕਾ ਆਚਾਰੁ ॥
नामु न चेतहि सबदु न वीचारहि इहु मनमुख का आचारु ॥
वह प्रभु-नाम को स्मरण नहीं करते और न ही शब्द-गुरु का चिंतन करते हैं। स्वेच्छाचारियों का ऐसा जीवन-आचरण है।

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