ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਉਬਰੇ ਜਿ ਆਪਿ ਮੇਲੇ ਕਰਤਾਰਿ ॥੨॥
नानक गुरमुखि उबरे जि आपि मेले करतारि ॥२॥
हे नानक ! गुरुमुख मनुष्य संसार सागर से पार हो जाते हैं, उन्हें करतार प्रभु अपने साथ मिला लेता है ॥२॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी।
ਭਗਤ ਸਚੈ ਦਰਿ ਸੋਹਦੇ ਸਚੈ ਸਬਦਿ ਰਹਾਏ ॥
भगत सचै दरि सोहदे सचै सबदि रहाए ॥
भक्त सच्चे परमात्मा के द्वार पर बैठे बड़े शोभा देते हैं। वे सच्चे शब्द द्वारा ही स्थिर रहते हैं।
ਹਰਿ ਕੀ ਪ੍ਰੀਤਿ ਤਿਨ ਊਪਜੀ ਹਰਿ ਪ੍ਰੇਮ ਕਸਾਏ ॥
हरि की प्रीति तिन ऊपजी हरि प्रेम कसाए ॥
हरि की प्रीति उनके भीतर उत्पन्न हो जाती है और हरि के प्रेम में आकर्षित रहते हैं।
ਹਰਿ ਰੰਗਿ ਰਹਹਿ ਸਦਾ ਰੰਗਿ ਰਾਤੇ ਰਸਨਾ ਹਰਿ ਰਸੁ ਪਿਆਏ ॥
हरि रंगि रहहि सदा रंगि राते रसना हरि रसु पिआए ॥
वे हमेशा हरि के रंग में मग्न रहते हैं और उनकी जिव्हा हरि रस का पान करती है।
ਸਫਲੁ ਜਨਮੁ ਜਿਨੑੀ ਗੁਰਮੁਖਿ ਜਾਤਾ ਹਰਿ ਜੀਉ ਰਿਦੈ ਵਸਾਏ ॥
सफलु जनमु जिन्ही गुरमुखि जाता हरि जीउ रिदै वसाए ॥
जो लोग गुरु की शरणागत पूज्य परमेश्वर को पहचानते हैं और उसे अपने हृदय में बसाते हैं, उनका जीवन सफल है।
ਬਾਝੁ ਗੁਰੂ ਫਿਰੈ ਬਿਲਲਾਦੀ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਖੁਆਏ ॥੧੧॥
बाझु गुरू फिरै बिललादी दूजै भाइ खुआए ॥११॥
गुरु के बिना दुनिया रोती फिरती है और मोह-माया में फँसकर नष्ट हो रही है॥ ११॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक महला ३॥
ਕਲਿਜੁਗ ਮਹਿ ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ਭਗਤੀ ਖਟਿਆ ਹਰਿ ਉਤਮ ਪਦੁ ਪਾਇਆ ॥
कलिजुग महि नामु निधानु भगती खटिआ हरि उतम पदु पाइआ ॥
इस कलियुग में भक्तों ने ही भगवान की भक्ति करके नाम-भण्डार प्राप्त किया है और प्रभु के उत्तम पद को पाया है।
ਸਤਿਗੁਰ ਸੇਵਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਮਨਿ ਵਸਾਇਆ ਅਨਦਿਨੁ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇਆ ॥
सतिगुर सेवि हरि नामु मनि वसाइआ अनदिनु नामु धिआइआ ॥
सतिगुरु की सेवा करके उन्होंने हरि के नाम को अपने मन में बसा लिया है और रात-दिन नाम का ही ध्यान किया है।
ਵਿਚੇ ਗ੍ਰਿਹ ਗੁਰ ਬਚਨਿ ਉਦਾਸੀ ਹਉਮੈ ਮੋਹੁ ਜਲਾਇਆ ॥
विचे ग्रिह गुर बचनि उदासी हउमै मोहु जलाइआ ॥
अपने घर में ही वे गुरु के उपदेश द्वारा निर्लिप्त रहते हैं तथा अपने अहंत्व एवं मोह को जला दिया है।
ਆਪਿ ਤਰਿਆ ਕੁਲ ਜਗਤੁ ਤਰਾਇਆ ਧੰਨੁ ਜਣੇਦੀ ਮਾਇਆ ॥
आपि तरिआ कुल जगतु तराइआ धंनु जणेदी माइआ ॥
सतगुरु स्वयं संसार-सागर से पार हुआ है और उसने समूचे जगत को भी भवसागर से तार दिया है, वह माता धन्य है जिसने उन्हें जन्म दिया है।
ਐਸਾ ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੋਈ ਪਾਏ ਜਿਸੁ ਧੁਰਿ ਮਸਤਕਿ ਹਰਿ ਲਿਖਿ ਪਾਇਆ ॥
ऐसा सतिगुरु सोई पाए जिसु धुरि मसतकि हरि लिखि पाइआ ॥
ऐसा सतिगुरु उसे ही प्राप्त होता है, जिसके मस्तक पर प्रभु ने प्रारम्भ से ऐसा लेख लिख दिया है।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਬਲਿਹਾਰੀ ਗੁਰ ਆਪਣੇ ਵਿਟਹੁ ਜਿਨਿ ਭ੍ਰਮਿ ਭੁਲਾ ਮਾਰਗਿ ਪਾਇਆ ॥੧॥
जन नानक बलिहारी गुर आपणे विटहु जिनि भ्रमि भुला मारगि पाइआ ॥१॥
नानक अपने गुरु पर बलिहारी है, जिसने दुविधा में भटके हुए को सन्मार्ग लगाया है। ॥१॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥
ਤ੍ਰੈ ਗੁਣ ਮਾਇਆ ਵੇਖਿ ਭੁਲੇ ਜਿਉ ਦੇਖਿ ਦੀਪਕਿ ਪਤੰਗ ਪਚਾਇਆ ॥
त्रै गुण माइआ वेखि भुले जिउ देखि दीपकि पतंग पचाइआ ॥
त्रिगुणात्मक माया को देखकर मनुष्य ऐसे कुमार्गगामी हो जाता है जैसे दीपक को देखकर पतंगा नाश हो जाता है।
ਪੰਡਿਤ ਭੁਲਿ ਭੁਲਿ ਮਾਇਆ ਵੇਖਹਿ ਦਿਖਾ ਕਿਨੈ ਕਿਹੁ ਆਣਿ ਚੜਾਇਆ ॥
पंडित भुलि भुलि माइआ वेखहि दिखा किनै किहु आणि चड़ाइआ ॥
पण्डित बार-बार माया के लोभ में आकर्षित होकर देखता रहता है कि किसी ने उसके समक्ष कुछ भेंट रखी है अथवा नहीं।
ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਪੜਹਿ ਨਿਤ ਬਿਖਿਆ ਨਾਵਹੁ ਦਯਿ ਖੁਆਇਆ ॥
दूजै भाइ पड़हि नित बिखिआ नावहु दयि खुआइआ ॥
द्वैतभाव की प्रीति में पथभ्रष्ट हुआ वह नित्य पाप बारे पढ़ता है और प्रभु ने उसे अपने नाम से वंचित किया हुआ है।
ਜੋਗੀ ਜੰਗਮ ਸੰਨਿਆਸੀ ਭੁਲੇ ਓਨੑਾ ਅਹੰਕਾਰੁ ਬਹੁ ਗਰਬੁ ਵਧਾਇਆ ॥
जोगी जंगम संनिआसी भुले ओन्हा अहंकारु बहु गरबु वधाइआ ॥
योगी, जंगम एवं संन्यासी भी भूले हुए हैं, क्योंकि उन्होंने अपना अहंकार एवं गर्व बहुत बढ़ाया हुआ है।
ਛਾਦਨੁ ਭੋਜਨੁ ਨ ਲੈਹੀ ਸਤ ਭਿਖਿਆ ਮਨਹਠਿ ਜਨਮੁ ਗਵਾਇਆ ॥
छादनु भोजनु न लैही सत भिखिआ मनहठि जनमु गवाइआ ॥
वस्त्र एवं भोजन की सच्ची भिक्षा को वे स्वीकृत नहीं करते और अपने मन के हठ के कारण अपना जीवन व्यर्थ ही गंवा लेतै हैं।
ਏਤੜਿਆ ਵਿਚਹੁ ਸੋ ਜਨੁ ਸਮਧਾ ਜਿਨਿ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇਆ ॥
एतड़िआ विचहु सो जनु समधा जिनि गुरमुखि नामु धिआइआ ॥
इनमें से केवल वही सेवक महान् है जो गुरु के सान्निध्य में रहकर नाम का ध्यान करता है।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਕਿਸ ਨੋ ਆਖਿ ਸੁਣਾਈਐ ਜਾ ਕਰਦੇ ਸਭਿ ਕਰਾਇਆ ॥੨॥
जन नानक किस नो आखि सुणाईऐ जा करदे सभि कराइआ ॥२॥
हे नानक ! किसे कहकर पुकार करें, जबकि सबकुछ करने कराने वाला सृष्टिकर्ता ही है॥ २॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी ॥
ਮਾਇਆ ਮੋਹੁ ਪਰੇਤੁ ਹੈ ਕਾਮੁ ਕ੍ਰੋਧੁ ਅਹੰਕਾਰਾ ॥
माइआ मोहु परेतु है कामु क्रोधु अहंकारा ॥
माया-मोह, काम, कोध एवं अहंकार इत्यादि भयानक प्रेत हैं।
ਏਹ ਜਮ ਕੀ ਸਿਰਕਾਰ ਹੈ ਏਨੑਾ ਉਪਰਿ ਜਮ ਕਾ ਡੰਡੁ ਕਰਾਰਾ ॥
एह जम की सिरकार है एन्हा उपरि जम का डंडु करारा ॥
ये सब यमराज की प्रजा हैं और इन पर यमराज का सख्त दण्ड कायम रहता है।
ਮਨਮੁਖ ਜਮ ਮਗਿ ਪਾਈਅਨੑਿ ਜਿਨੑ ਦੂਜਾ ਭਾਉ ਪਿਆਰਾ ॥
मनमुख जम मगि पाईअन्हि जिन्ह दूजा भाउ पिआरा ॥
स्वेच्छाचारी मनुष्य जो मोह-माया से प्रेम करते हैं, वह यमराज के मार्ग पर धकेले जाते हैं।
ਜਮ ਪੁਰਿ ਬਧੇ ਮਾਰੀਅਨਿ ਕੋ ਸੁਣੈ ਨ ਪੂਕਾਰਾ ॥
जम पुरि बधे मारीअनि को सुणै न पूकारा ॥
स्वेच्छाचारी यमपुरी में बंधे हुए पीटे जाते हैं और कोई भी उनकी पुकार नहीं सुनता।
ਜਿਸ ਨੋ ਕ੍ਰਿਪਾ ਕਰੇ ਤਿਸੁ ਗੁਰੁ ਮਿਲੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਿਸਤਾਰਾ ॥੧੨॥
जिस नो क्रिपा करे तिसु गुरु मिलै गुरमुखि निसतारा ॥१२॥
जिस पर प्रभु कृपा करता है, उसे गुरु मिल जाता है और गुरु के सान्निध्य में रहकर प्राणी की मुक्ति हो जाती है ॥१२॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक महला ३ ॥
ਹਉਮੈ ਮਮਤਾ ਮੋਹਣੀ ਮਨਮੁਖਾ ਨੋ ਗਈ ਖਾਇ ॥
हउमै ममता मोहणी मनमुखा नो गई खाइ ॥
अहंत्व एवं ममता पैदा करने वाली माया ऐसी मोहिनी है जो स्वेच्छाचारियों को निगल गई है।
ਜੋ ਮੋਹਿ ਦੂਜੈ ਚਿਤੁ ਲਾਇਦੇ ਤਿਨਾ ਵਿਆਪਿ ਰਹੀ ਲਪਟਾਇ ॥
जो मोहि दूजै चितु लाइदे तिना विआपि रही लपटाइ ॥
जो अपना चित्त द्वैतवाद के मोह में लगाते हैं, यह माया उनके साथ लिपटकर उन्हें वश में कर लेती है।
ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਪਰਜਾਲੀਐ ਤਾ ਏਹ ਵਿਚਹੁ ਜਾਇ ॥
गुर कै सबदि परजालीऐ ता एह विचहु जाइ ॥
यदि गुरु के शब्द द्वारा इसे जला दिया जाए तो यह तभी अन्तर से निकलती है।
ਤਨੁ ਮਨੁ ਹੋਵੈ ਉਜਲਾ ਨਾਮੁ ਵਸੈ ਮਨਿ ਆਇ ॥
तनु मनु होवै उजला नामु वसै मनि आइ ॥
इस प्रकार तन, मन उज्जवल हो जाते हैं और नाम आकर मन में निवास कर लेता है।
ਨਾਨਕ ਮਾਇਆ ਕਾ ਮਾਰਣੁ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਹੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਾਇਆ ਜਾਇ ॥੧॥
नानक माइआ का मारणु हरि नामु है गुरमुखि पाइआ जाइ ॥१॥
हे नानक ! हरि का नाम इस माया का मारण है जो गुरु के माध्यम से प्राप्त हो सकता है ॥१॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥
ਇਹੁ ਮਨੁ ਕੇਤੜਿਆ ਜੁਗ ਭਰਮਿਆ ਥਿਰੁ ਰਹੈ ਨ ਆਵੈ ਜਾਇ ॥
इहु मनु केतड़िआ जुग भरमिआ थिरु रहै न आवै जाइ ॥
यह मन अनेक युगों में भटकता रहा है। यह स्थिर नहीं होता और जन्मता-मरता रहता है।
ਹਰਿ ਭਾਣਾ ਤਾ ਭਰਮਾਇਅਨੁ ਕਰਿ ਪਰਪੰਚੁ ਖੇਲੁ ਉਪਾਇ ॥
हरि भाणा ता भरमाइअनु करि परपंचु खेलु उपाइ ॥
जब हरि को अच्छा लगता है तो वह मन को भटकाता है और उसने ही यह परपंच बनाकर यह खेल रचा है।
ਜਾ ਹਰਿ ਬਖਸੇ ਤਾ ਗੁਰ ਮਿਲੈ ਅਸਥਿਰੁ ਰਹੈ ਸਮਾਇ ॥
जा हरि बखसे ता गुर मिलै असथिरु रहै समाइ ॥
जब हरि मन को क्षमा कर देता है तो ही गुरु मिलता है और स्थिर होकर मन सत्य में विलीन हो जाता है।