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ਬਿਨੁ ਸੰਗਤਿ ਇਉ ਮਾਂਨਈ ਹੋਇ ਗਈ ਭਠ ਛਾਰ ॥੧੯੫॥बिनु संगति इउ मांनई होइ गई भठ छार ॥१९५॥इस तरह मानो जैसे भट्टी में पड़कर वस्तु जलकर राख हो जाती है, सत्संग के बिना व्यक्ति कुसंगति में नष्ट हो जाता है॥१६५॥ ਕਬੀਰ ਨਿਰਮਲ ਬੂੰਦ ਅਕਾਸ ਕੀ ਲੀਨੀ ਭੂਮਿ ਮਿਲਾਇ ॥कबीर निरमल बूंद अकास की लीनी भूमि मिलाइ

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ਓਰਾ ਗਰਿ ਪਾਨੀ ਭਇਆ ਜਾਇ ਮਿਲਿਓ ਢਲਿ ਕੂਲਿ ॥੧੭੭॥ओरा गरि पानी भइआ जाइ मिलिओ ढलि कूलि ॥१७७॥जैसे ओला गर्मी से गल कर पानी रूप हो जाता है और ढाल पाकर बह जाता है ॥१७७॥ ਕਬੀਰਾ ਧੂਰਿ ਸਕੇਲਿ ਕੈ ਪੁਰੀਆ ਬਾਂਧੀ ਦੇਹ ॥कबीरा धूरि सकेलि कै पुरीआ बांधी देह ॥हे कबीर ! ईश्वर ने पंच तत्व

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ਤਾਸੁ ਪਟੰਤਰ ਨਾ ਪੁਜੈ ਹਰਿ ਜਨ ਕੀ ਪਨਿਹਾਰਿ ॥੧੫੯॥तासु पटंतर ना पुजै हरि जन की पनिहारि ॥१५९॥उस स्त्री की बराबरी नहीं कर सकती, जो प्रभु-भक्तों की सेविका है।॥१५६॥ ਕਬੀਰ ਨ੍ਰਿਪ ਨਾਰੀ ਕਿਉ ਨਿੰਦੀਐ ਕਿਉ ਹਰਿ ਚੇਰੀ ਕਉ ਮਾਨੁ ॥कबीर न्रिप नारी किउ निंदीऐ किउ हरि चेरी कउ मानु ॥कबीर जी जनमानस को बताते हैं कि

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ਜਿਉ ਜਿਉ ਭਗਤਿ ਕਬੀਰ ਕੀ ਤਿਉ ਤਿਉ ਰਾਮ ਨਿਵਾਸ ॥੧੪੧॥जिउ जिउ भगति कबीर की तिउ तिउ राम निवास ॥१४१॥ज्यों-ज्यों वे भक्ति-वंदना करते हैं, त्यों-त्यों उनके मन में ईश्वर अवस्थित हो जाता है।॥१४१॥ ਕਬੀਰ ਗਹਗਚਿ ਪਰਿਓ ਕੁਟੰਬ ਕੈ ਕਾਂਠੈ ਰਹਿ ਗਇਓ ਰਾਮੁ ॥कबीर गहगचि परिओ कुट्मब कै कांठै रहि गइओ रामु ॥कबीर जी कथन करते हैं

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ਕਬੀਰ ਚੁਗੈ ਚਿਤਾਰੈ ਭੀ ਚੁਗੈ ਚੁਗਿ ਚੁਗਿ ਚਿਤਾਰੇ ॥कबीर चुगै चितारै भी चुगै चुगि चुगि चितारे ॥हे कबीर ! कूज दाना चुगते अपने बच्चों को याद करती है, बार-बार दाना चुगते उनकी याद में लीन रहती है। ਜੈਸੇ ਬਚਰਹਿ ਕੂੰਜ ਮਨ ਮਾਇਆ ਮਮਤਾ ਰੇ ॥੧੨੩॥जैसे बचरहि कूंज मन माइआ ममता रे ॥१२३॥ज्यों बच्चों की याद

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ਆਪ ਡੁਬੇ ਚਹੁ ਬੇਦ ਮਹਿ ਚੇਲੇ ਦੀਏ ਬਹਾਇ ॥੧੦੪॥आप डुबे चहु बेद महि चेले दीए बहाइ ॥१०४॥ऐसे गुरु स्वयं तो चार वेदों के कर्मकाण्ड में डूबे होते हैं, अपने चेलों को भी उस कर्मकाण्ड में बहा देते हैं।॥ १०४ ॥ ਕਬੀਰ ਜੇਤੇ ਪਾਪ ਕੀਏ ਰਾਖੇ ਤਲੈ ਦੁਰਾਇ ॥कबीर जेते पाप कीए राखे तलै दुराइ ॥हे

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ਕਬੀਰ ਮਨੁ ਪੰਖੀ ਭਇਓ ਉਡਿ ਉਡਿ ਦਹ ਦਿਸ ਜਾਇ ॥कबीर मनु पंखी भइओ उडि उडि दह दिस जाइ ॥हे कबीर ! मन पक्षी बना हुआ है, जो उड़-उड़कर दसों दिशाओं में जाता है। ਜੋ ਜੈਸੀ ਸੰਗਤਿ ਮਿਲੈ ਸੋ ਤੈਸੋ ਫਲੁ ਖਾਇ ॥੮੬॥जो जैसी संगति मिलै सो तैसो फलु खाइ ॥८६॥इसे जैसी संगत मिलती है, वैसा

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ਜਬ ਦੇਖਿਓ ਬੇੜਾ ਜਰਜਰਾ ਤਬ ਉਤਰਿ ਪਰਿਓ ਹਉ ਫਰਕਿ ॥੬੭॥जब देखिओ बेड़ा जरजरा तब उतरि परिओ हउ फरकि ॥६७॥जब मैंने देखा कि शरीर रूपी बेड़ा पुराना हो गया तो इसमें से तुरंत ही उतर गया ॥ ६७ ॥ ਕਬੀਰ ਪਾਪੀ ਭਗਤਿ ਨ ਭਾਵਈ ਹਰਿ ਪੂਜਾ ਨ ਸੁਹਾਇ ॥कबीर पापी भगति न भावई हरि पूजा न

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ਕਬੀਰ ਥੋਰੈ ਜਲਿ ਮਾਛੁਲੀ ਝੀਵਰਿ ਮੇਲਿਓ ਜਾਲੁ ॥कबीर थोरै जलि माछुली झीवरि मेलिओ जालु ॥कबीर जी उद्बोधन करते हैं- (जीव रूपी) मछली थोड़े से जल में रहती है, काल रूपी मछुआरा जाल बिछाकर पकड़ लेता है। ਇਹ ਟੋਘਨੈ ਨ ਛੂਟਸਹਿ ਫਿਰਿ ਕਰਿ ਸਮੁੰਦੁ ਸਮ੍ਹ੍ਹਾਲਿ ॥੪੯॥इह टोघनै न छूटसहि फिरि करि समुंदु सम्हालि ॥४९॥जीव देवी-देवताओं की

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ਐਸੇ ਮਰਨੇ ਜੋ ਮਰੈ ਬਹੁਰਿ ਨ ਮਰਨਾ ਹੋਇ ॥੨੯॥ऐसे मरने जो मरै बहुरि न मरना होइ ॥२९॥ऐसे मरना चाहिए कि पुनः मृत्यु प्राप्त न हो अर्थात् जन्म-मरण से मुक्ति ही मिल जाए॥ २६॥ ਕਬੀਰ ਮਾਨਸ ਜਨਮੁ ਦੁਲੰਭੁ ਹੈ ਹੋਇ ਨ ਬਾਰੈ ਬਾਰ ॥कबीर मानस जनमु दुल्मभु है होइ न बारै बार ॥कबीर जी उपदेश करते

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